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________________ ता. १-1-3४. -जन युभ १०३ श्री केशरीयाजी तीर्थ स्टेट ने स्वंत १९३४ में व्यवस्था बदलते हुवे एक इश्तहार द्वारा पण्डों की करतूतों का वर्णन करते हुवे और भंडारी पण्डों को पद भ्रष्ट करके आठ जैन ओसवालों की मेवाड राज्य. धुलेव कुमेटी स्थापित की और उसकी सलाह से काम करने का बचन देकर सरकारी प्रबंध जारी किया जिस की [गतांक १२ पृष्ठ ७१ से चालू ] पुष्टी स्वत १९३५ के इश्तहार द्वारा भी की गई उस में अब हम उन फैसलों का भी दिग दर्शन करना चाहते धुलेव कुमेटी का जैन होना और म्वाधिकार से काम करना हैं जिनका उल्लेख ऊपर कर चुके है सम्पूर्ण फैसलों की नकलें दोनों वात स्वीकार हैं (देखो विज्ञप्ति नम्बर ४ जिम में तो स्टेट अपनी कमजोरी छिपाने वास्ते देती हों नहीं तो भी सब सरकारी कागजों की नकले हैं जिनका हवाला ऊपर जितना सारांश हम मालूम कर सकें है पाठकों की जान कारी आया है) इस प्रकार म्वत १९३४ में नया प्रबंध वास्ते मये किंचित घटनाओं के विवेचन करते हैं। होने से नया दरोगा भंडार कायम हुवा नई धुलेव कुमेटी जिस से मेवाडी न्याय का नमूना भी भली प्रकार समझ जारी हुई भंडारी पण्डों को निकाल देने से जो कागजात में आसके किधर्म रक्षक कहाने वाले राज्य में आज दिन न्याय. उन के पास थे उन्हों ने गुम कर दिये पुरानी जानकारी ही किसी की थी. पुजारी पण्डे ज्यू ज्यूं खुशामद करके बच गये के नाम पर कितना घोर अन्याय किया जाता है। थे क्योंकि उस गवन से यह कैसे बच सकते थे जहां दोनों यह सभी जानते हैं कि जैन मन्दिरों में पूजन प्रक्षाल का हर दम साथ रहना ही एक की बेखबरी में कोई भी काम की आयका मालिक भंडार होता है. श्री केसरिया जी तीर्थ होना असंभव है जिस के हाथ जो लगा सो खाया. पुजारी पर पुजारी पन्डों को सीधा वेतन ना देकर दूसरे तरीकों पण्डे बोली की आमदनी खा गये पर बड़े गवन के आगे से लाग बंदी हुई है संवत १९०६ में इस तीर्थ पर जव छाटों पर ध्यान ही नहीं दिया गया। बोली बोलने का रिवाज जारी हुवा तो बोली बोलने का काम पुजारी पन्डों से ही लिया गया इस महनत के बदले नतीजा यह हुवा कि नये इन्तजाम में कुछ काल तक में श्री संघ ने वेतन स्वरूप उस आय में से १ एक रुपया तो बोली बोलना बन्द रहा और बाद में वही पुरानी आदत रोज पन्डों को देकर बाकी समस्त आमदनी भंडार जमा के अनुसार पुजारी पण्डों ने साथ में रहने वालों से मल करने का निश्चय करके उसी समय पण्डों से भी लिखत कर कर बोली बोल आमदनी गवन करने लगे. किसी उदयपुर लिखा लीना उसी के अनुसार महाराणा स्वरूप सिंह जी ने वाले या जानकार यात्री को देखते तो बोली ही नहीं बोलते भी स्वंत १९०६ और स्वंत १०१६ में पट्टे परवाने कर ' और अजान यात्रीयों से बोली बुलाकर रकम उदयपुर से दिये स्वत १९.१७ ओर १९३४ के बीच में जिन नगर खाजाते इस का भंडाफोड़ स्वंत १९७६ में हुवा जब एक सेट जी का उक्त तीर्थ पर प्रबन्ध था उनके स्थानकवासी ५ यात्री ने धुलेव में रुप्या न देकर उदयपुर जाकर दिया उस हान के कारण देख भाल ढीली पडती गई. पण्डों ने मित समय से मुकदमे की शुरुआत हुई। मिला कर खूब लूट मचाई भंडार से बेशुमार धन निकाल जेन संघ और सरकारी परवानों के विरुद्ध मंदिर की लेजाना, ५२०००) रिशवतों में देना भेट में आये ग्रामों आमदनी नष्ट होती दख स्टेट में मुखबरी की गई क्योंकि की और मंदिर की आमदनी खाजाना आदि सब उन्हीं इन्तजाम सरकारी हाथों में था और उस के हुकमों के विरुद्ध दिनों की घटनाएं हैं जिसे खुद स्टेट ने म्वत १९३४ के काररवाई रोकना उसका फर्ज था.फागन मुदी ५म्बंत१९७७ इशतहार में स्वीकार की है उन दिनों नगर सेट जी की को एक दरखास्त मुखबर हीरा लाल वल्द फतेह लाल सता भी बिराजदारी में कुच्छ कम न थी चाहे जिसकी कौम औदीच ब्राह्मण ने बनाम राजे श्री महकमे खास में इस शादी तक स्टेटकी की सहायता से रुकवा सकते थे लोग मजमून की दी कि जल प्रक्षाल द्ध प्रक्षाल को केसर चढ़ाने उन के विरुद्ध बोल कर शत्रुता करना भी नहीं चाहते थे की सेवक औसरा वाला बोली बोल अमदनी लेने लगे हैं दूसरी तर्फ तीर्थ की आमदानी पंडों द्वारा गबन होना भी जिस से भंडार को नुकसान होता है इत्यादिक जिस पर राजे नहीं देख सकते थ तब किसी ने खानगी महाराणा साहिब श्री महकमे खास से हुकम नम्बर ३८३८७ फागन सुदी ७ से व्यवस्था सुधारने की प्रार्थना की। म्वत १९७७ यह हुकम हुवा कि देव स्थान में भेज कर
SR No.536274
Book TitleJain Yug 1934
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1934
Total Pages178
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size20 MB
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