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________________ समाज के सामने आज सैंकडों समस्यायें हैं परन्तु उनमें से मुख्य समस्याओंको हल करने का विचार कर लेनेपर छोटी छोटी समस्याएं अपने आप हल हो जावेंगी। आप लोग यहां उन सब समस्याओंपर विचार करेंगे ही। इस लिये मैं उनका विस्तृतभाष्य अभीसे नहीं लिखना चाहता हूँ। सिर्फ कुछ संकेतही करता हूँ। संक्षेपमें आपका ध्यान उन समस्योंकी तरफ आकर्षित करता हूँ | संप्रति समाजके सामने निम्न प्रश्न उपस्थित हैं। हमारी जन संख्या. सजनों आज के युगमें ही नहीं किन्तु सदासे ही संख्या बल एक बड़ा भारी बल है। एक समय ऐसा था जबकि जैन धर्मका प्रसार सर्वत्र था । हमारे देशका कोईभी नगर या गांव ऐसा नहीं था जहांपर कि जैन धर्मानुयायीं नहीं थे । सर्वत्र जैन धर्मका प्रभाव था । कई प्रांतोंमें तो जैन धर्म सार्वजनिक था। किन्तु खेदका विषय है कि हमारा जैन समाज कई शताब्दियोंसे बराबर घटता चला आ रहा है। आज कोडोंकी संख्यासे मात्र ऊंगालियोंपर गिनने लायक संख्या देखकर किस समाज प्रेमी अथवा धर्म प्रेमीका मन दुःखित न होगा। इस शोचनीय दशाका उपाय यदि शीघ्र न ढूंढा गया और ऐसे कारणोंको जिनसे कि समाजकी कमी होती हो दूर न करके वृद्धिके उपायोंको अमलमें न लाया गया तो हमारी संख्या जल्दीही क्षीण होकर हमारी समाज तयाँ धर्म मात्र इतिहासके पन्नोंमें ही रह जायेगा । इस लिये कॉन्फरेन्सका मुख्य कर्तव्य है कि जैन समाजकी संख्याकी वृद्धिकी तरफ शीघ्र लक्ष दे। थोडे समय पहीले हमारी जैन समाजका धनबल जन और प्रभाव इतना बढ़ा चढ़ाया कि संसारभरमें उनकी बराबरी करनेवाली कोईभी जाति, समाज, एवं राष्ट्र नहीं था । हमारी धनकी परिस्थिती ऐसीथी कि एक एक गांवमे हजारों जैन गृहस्थ अजपति व करोडपति थे। बड़े बड़े राजामहाराजा हमारे ऋणिथे । मात्र हमारे मुर्शिदाबादके कासिम बाजारमें ही पांच छः हजार जैन घरोंकी बस्तीथी, जिनमें पांच छ. सो घर क्रोडपति थे और बाकी सब लखपति थे परन्तु आज वहांपर जैनोंका नामभी नहीं है इसी प्रकार मास्वाड़ मेवाड़ आदि देशोंमें भी हमारी समाज की ऐसी ही परिस्थिति थी। हमारी बलभी ऐसा बढ़ा चढ़ाया कि हमारे जैन बन्धु राजा, महाराज, मंत्री, दिवान आदि बड़े उच्चाधिकारी थे । जैन धर्म शास्त्रमें साक्षर थे। वैसे अपनै भुजाबलसैभी समय पडनेपर शत्रुओंके दांत खट्टे करनेमें कोई कसर उठा नहीं रखते थे । मुसलमान, राजपूत आदि सब नवावों और राजा, महाराजाओं में हमारी समाजका इतना मान सत्कार था कि जिसका वर्णन करना मेरी शक्तिसे बाहिर है। हमारी जन संख्याका वर्णन पहिलमें कर चुका हूँ कि हम कई क्रोडोंकी संख्या में थे। इस लिये बार वार पिष्टपेषण समझकर मैं इसका दुबारा वर्णन क्या करूं। हमारा प्रभाव कुछ समय पहिले ऐसा था कि बड़े बड़े राजा, महाराजा, नवाब वगैरहभी हमारे सामने झुकते थे। हमारे किये हुए फैसले रद्द नहीं कर सकते थे और जो भी कार्य करते थे उसमें हमारी पूर्ण अनुमति लेकर ही करते थे। परन्तु आज बड़े बड़े नगरोंकी तरफ देखिये, कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, पटना, लखनऊ, बनारस, देहली आदि जहांपर किसी समय जैनोंकी सर्व प्रकारेण पूर्ण जाहोजलालीथी आज वहांकी परिस्थिति विचारणीय है। अतिशय खेदका विषय है कि कुछ समयसे बड़े भारी वेगसे हमारी समाजका धन, जन, बल और प्रभाव अवनतिकी और जा रहा है। जिसके कारण आज हमारी स्थिति बड़ी शोचनीय हो गई है।
SR No.536274
Book TitleJain Yug 1934
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1934
Total Pages178
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size20 MB
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