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________________ कोई भी कार्य तबतक सिद्ध न होगा जबतक आपको आपनी शक्तिों व कार्यकी उत्तमता पूर्ण विश्वास न होगा व आप साधनोंका यथेष्ठ ज्ञान-प्राप्त करके तदनुसार आचरण न करेंगे । यही जैन धर्मका विख्यात रत्नत्रय है। यदि हम ठीक रास्तेपर चलते होते तो यह कदापि संभव नहीं था कि हम धर्माचरण करते हुए इस दीन दशाको पहुंचते । अतएव हमारा परम कर्तव्य है कि अपनी त्रुटियोंको ढूंढ निकाले । राजमार्गपर पहोंचनेका सतत् प्रयत्न मन, वचन, कार्यपूर्वक करें और समाज हितरूपी कार्यको सफल बनावें। यही मेरी नम्र प्रार्थना है । सुधार. भगवान् महावीर महानसे महान् सुधारक थे। उन्होंने भगवान् पार्श्वनाथके संप्रदायभी सुधार किया था। जैन धर्ममें पदपद पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी दुहाई दी जाती है। उसका स्याद्वाद् सिद्धान्तभी इसीपर खडा है इससे साफ मालूम होता है कि जैन धर्म एक सुधारक धर्म है । जो परिस्थितिके बदलजाने पर भी उठना नहीं चाहते, दुसरी जगह जानेसे डरते हैं, सोचते हैं न मालूम वहां क्या होगा ! इस प्रकारके भाई अनादिसे अनंत तक जहांके तहां पड़े रहना चाहते हैं । वह भूल जाते हैं कि उत्पाद और व्ययके बिना नये सुधारों का प्रचार और पुरानी कुरूठियोंको बर्बाद किये बिना कोई द्रव्य अपनी सत्ताभी कायम नहीं रख सकता। ऐसे लोग जैन धर्मको पाकरभी भ्रमवश उसके नामपर रूढ़ियोंका पोषण करते हैं। यदि स्याद्वादपर थोडाभी विचार करेंगे तो वे आत्मोद्धारके साथ समाजोन्नत्तिके कार्यमें अच्छी सहायता पहोंचा सकेंगे। आचार शास्त्र और रूढियों में बहुत अंतर है। आचार शास्त्रकी सृष्टि विचार, विवेकके ऊपर होती है। जब कि रूढियों की सृष्टि का मूल परम्परा है। रूढियों में विचार और विवेकके लिये स्थान नहीं होता। आचार शास्त्र और रूढियोंमें यही एक बडा भारी अंतर है। ___ साधारण लोगोंको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका ज्ञान नहीं होता। वे तो रूढियों की गुलामीमें ही अपना कल्याण समझते हैं । इस लिये उनकी बहुतसी शक्तियां व्यर्थ ही बर्बाद होती हैं। उनका बहुतसा समय, बहुत साधन व्यर्थ जाता है । इतना ही नहीं बल कि वह कभी कभी तो रूढियोंमें फसे रहनेके कारण ही अनेक प्रकारकी असुविधायें भोगते हैं। और कभी कभी तो इसी गुलामीके कारण अपना सर्व नाशतक कर डालते है। परन्तु आचार शास्त्रमें विवेक के लिये पूरा स्थान है। उसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका पूरा विचार किया जाता है। उसके नियमोंका उदेश यही रहता है कि आत्माका कल्याण किस तरह हो सकता है। जिन कार्योके कहनेसे विभाव परिणति कम होती है । उन्हीं कार्योंको आचार शास्त्रमें धर्म कहा गया है। जो लोग रूढियोंके भक्त या प्रेमी हैं वह भले ही ऐसे बने रहें परन्तु अगर वह रूढियों को रूढी और आचार शास्त्र को आचार शास्त्र समझते रहें। अर्थात् रूढियोंका आचार शास्त्र के साथ संबन्ध नहीं है। तो इसमें दोनोंका कल्याण है । जो लोग रूढियों की गुलामी नहीं छोड सकते वह आचार शास्त्रसे कुछ लाभ नहीं उठा सकते और नवे किसीभी तरह की उन्नति कर सकते है। हमारी समस्याए. बन्धुओ ! अगर हम जैन हैं, भगवान् महावीरके उपासक हैं तो हमें रूढ़ियोंकी गुलामी छोडकर समाजोन्नती की प्रत्येक बातोंको निःसंकोच स्वीकार करना चाहिये । मैं यह नहीं कहता की हरेक नयी बातको आंख बन्ध करके स्वीकार लेना चाहिये । मेरा कहना तो सिर्फ यही है कि किसीभी पुरानी बात सिर्फ इस लिये न पालिये कि वह पुरानी है और प्रत्येक नयी बात इस लिये अस्वीकृत नकीजायकि वह नयी है। नये पुरानेका भेद छोडकर जिससे समाज हित हो उसे निःसंकोच स्वीकार कीजीये यही मेरी नम्र प्रार्थना है।
SR No.536274
Book TitleJain Yug 1934
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1934
Total Pages178
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size20 MB
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