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- जैन युग -
ता. १५-८-३२
त्यागीवर्ग से निवेदन।
धर्मों के मुकाबिले संसारिक जीवों को शान्ति देने में कम
__ शक्ति रखता है। नहीं, नहीं। बड़े बड़े भारतीय और आज कल ईसाई और आर्यसमाजी भाई अपने अपने पाश्चात्य विद्वान् इस बात को मान चुके हैं कि जैन धर्म सिद्धान्तों का प्रचार वैतनिक उपदेशक रख कर भी बड़े सर्वोत्कृष्ठ और प्राणिमात्र का हितैषी हैं। जब जैन धर्म जोरों के साथ कर रहे हैं। उपदेशकों के बल पर उन्हें बहुत अच्छा है तब इसके प्रचार न होने का सिवाय इसके क्या कुछ सफलता भी प्राप्त हुई है। उनके अनुयायी बराबर कारण कहा जा सकता है कि इस का भली प्रकार प्रचार बढ़ते चले जा रहे है । यदि उनके पास वैतनिक उपदेशकों ही नहीं किया जा रहा है । विचारिये जब ग्राहक को अच्छी के स्थान पर अवैतनिक उपदेशक होते तो वह इससे भी वस्तु मिलेगी तो वह उसे न लेकर दूसरी क्यों लेगा? हां, कहीं आगे बढ गये होते। कारण वैतनिक उपदेशक कभी यदि दुकानदार ही अपने माल को अच्छा प्रमाणित न कर इतना काम नहीं कर सकता जितना कि एक अवैतनिक सके तो उसकी खपत न होने में ग्राहक का कोई दोष नहीं उपदेशक कर सकता है। क्योंकि एक ओर स्वार्थ है और कहा जा सकता। यदि हमारे विद्वान् और त्यागी उपदेशक दसरी ओर परोपकार वृत्ति । स्वार्थी आदमी कार्य को उसी जैन सिद्धान्तों को संसार के सामने रखने के लिये उपाश्रय हद तक करेगा जहां तक कि उसके स्वार्थ को धक्का न की चहार दिवारी को छोड़ कर मैदान में आ जावें । आपस पहंचे । चाहे वह कार्य पूरा हो या नहीं ! परन्तु निःस्वार्थी की तू-तू मैं मैं में समय न गँवा कर भगवान महावीर के उस कार्य के पूरा करने में अपने प्राणों तक की भी बाजी नाम पर एक सरीखा उपदेश देने लगे तो भारत में ही क्या लगा देता है और उसके पूरा होने पर ही प्रसन्न होता है। यूरोप और अमेरिका तक जैनधर्म की ध्वजा फहरा सकती है।
जैन समाज के पास आज पंच महा वृत धारी आदर्श अतः हम अपने पूज्य त्यागीवर्ग से सविनय निवेदन त्यागी, अवैतनिक और परोपकार बुद्धि से ग्रामानुग्राम पैदल करते हैं कि आप ऐसी कोई योजना निकालें कि विहार कर के उपदेश देने वाले सैकडो साधु साध्वियां जिससे आपस की तनातनी सदा के लिये मिट जाय । मौजूद हैं। वे आठ मांस तक जुदा २ ग्रामो में घूम कर हम बडे और वह छोटा यह भाव सब के दिलो से निकल उपदेश किया करते हैं और चार मास तक एक स्थान पर जाय। उधर स्थानकवासी अजमेर मे साधु-सम्मेलन करने ठहर कर यथा शक्ति धर्म का प्रचार और प्रभावना करते की तय्यारी कर रहे हैं, इधर आप की खूबी इसमे है कि हैं। यदि ये सब अपने कर्तव्य का यथोचित पालन आप उन से पहिले संगठित हो कर स्थानकवासी साधुओं करें तो आर्यसमाज और ईसाई समाज से क्या जैन के लिये एक आदर्श उपस्थित करदें। समाज कभी पीछे रह सकता है? नहीं ! कभी नहीं !! जब भगवान महावीर के नाम पर सब एक ही झंडे के टका लेकर काम करने वाले अपने हजारों अनुयायी बना नीचे खडे होकर जैनधर्म के सिद्धान्तो का सच्चा प्रचार कर सकते हैं तो हमारा यह त्यागीवर्ग उनसे क्यों कर पीछे रह और एक बार फिर सारे भूमण्डल मे अहिंसा की विजय सकता है। भगवान् महावीर के वचनो में वह सार भरा दुंदुभी बजा दे। (श्वेतांबर जैन-आग्रा.) हुआ है, कि यदि उस सार का भली प्रकार प्रचार किया -
(अनुसंधान पृ. १३९ परसे) जाय-मीठे और सीधे-सादे शब्दो में जनता को समझाया मितो संवत १९८८ रा चेतर शुदो ४ वार रवि. जाय तो सारे भूमण्डल में अहिंसा धर्म की ध्वजा फहरा
दस्तखतः-जे. अम. चौधरी; जे. सी. बोबावत; एस. एन. सकती है। किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि दूसरों के
सिंधी, बहोतरा पुनमचंद और शिरोही के १०० उपदेशक बराबर अपने समाज की जनसंख्या बढा रहे है
गृहस्थके। आबूरोडकी ३५ सही: शिवगंजकी और यहाँ बढने के बजाय दिन ब दिन हास होता जा
२०० सही; रोहिडाकी २० सही; मंडूर की ५०
सही; मरवाडीयाके सब, देलदरके सब, बरलूटक आज संसार में जैन धर्म का प्रचार नहीं होता । सब, कोजरा, झारोली, वीरवाडा बगेग शिंराही उपदेशको के बराबर घूमने पर भी जनता उसे नहीं अप- जिल्लेके सब गांम और सादडी, घाणेराव, नाती, तो क्या हम यह कह सकते हैं कि जैन धर्म दूसरे मुमेरपुर इत्यादि गोडवाड जिल्लेके गाम. Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombay 3, and published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20 Pydhoni, Bombay