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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रूपकों को निबन्धित करना ही चाहिए यही अर्थ सूचित होता है । और 'उपास्महे' से नाटकादि ग्रन्थों का और उसके शास्त्र ग्रन्थों का सतत परिशीलन समझना चाहिए । (६) विश्व से 'मर्त्यलोक' और सारा 'विश्व' (चौदह भुवनादि) यही एक अर्थ सूचित होता है । दूसरा अर्थ है नाटकादि में खास तौर से समवकारादि में देव दैत्य के चरित होने से मनुष्यलोक के सिवा इतर लोक का भी निरूपण आवश्यक समझा गया है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ૪૨ (७) न्याय्ये पथि - न्याय से अनपेत अर्थात् न्यायानुकूल मार्ग में विश्व को प्रतिष्ठित करना जैनी वाणी का कर्तव्य है । नाटक के सन्दर्भ में यशसंपादन के उपाय रूप होने से नायक प्रतिनायक के नयानय (नय और अनय) रूप फल के उपदेश से नाटकादि दुष्टों को भी सुपथ पर प्रतिष्ठित कर सकते हैं । समीक्षा : नाट्यदर्पणकार के मंगल पद्य के प्रेरणास्रोत हेमचन्द्र का का.शा. ही है । परंतु का.शा. का पद्य परंपरागत और केवल धर्मपरक है। जबकि, ना.द. कार मंगल पद्य से जैनी वाणी का नाट्यवाणी तक विस्तार करके व्यवहारिक अभिगम का स्वीकार करते हैं, बेशक पद्य का मंगलपरक और अभिनयपरक अर्थ जताने में ना.द.कार का परिश्रम सायास लगता है। का.शा. में हेमचन्द्र का मंगल पद्य नितान्त सहज और भक्तिभाव पूर्ण है। हेमचन्द्र ने काव्यपरक अर्थ देने का सभान प्रयत्न नहीं किया है । मधुर मृदु स्वादु ये जैनी वाणी - भगवान की अर्धमागधी भाषा के निराले गुण हैं और उनके निरूपण से सहज रूप में माधुर्य, सुकुमार इत्यादि काव्यगुणों की व्यञ्जना भी निष्पन्न हो ही जाती है । - हेमचन्द्र ने भी रूपक के द्वादश भेद स्वीकृत किये हैं, प्रकरणी के बदले वे सट्टक का निर्देश करते हैं इतना फर्क है । ना.द. ने प्रकरणी को जोडकर अपने रूपकभेद को भी द्वादश ही माना है । किन्तु उन्हें द्वादशांगी जैनी वाणी के साथ युक्त कर दिया है । अत्र उनका प्रेरणास्त्रोत दशरूपक है । दशरूपक में धनञ्जयने विष्णु के दश अवतारों को लेकर रूपक के दश प्रकार निरूपित किये हैं । (द.रू. १/२) रामचन्द्र - गुणचन्द्र ने चतुर्वर्ग को नाट्य का फल माना है । अतः उनका अभिगम साहित्य के संदर्भ में भी धार्मिक है। पूरा काव्य व नाट्यसाहित्य का फल केवल आनन्द है । काव्य और नाट्य में उपदेश जरूर आता है पर वह कान्तासंमित है । साहित्य मात्र का प्रधान प्रयोजन अनर्गल आनन्द ही है | हेमचन्द्र ने काव्य के संदर्भ में आनन्दरूप प्रयोजन का स्वीकार किया ही है क्योंकि कला मात्र आनन्द के लिए ही होती है (का. शा. १ / ३) । For Private and Personal Use Only सामीप्य : खोस्टो २००६ - भार्य, २००७
SR No.535841
Book TitleSamipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2006
Total Pages110
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size9 MB
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