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रूपाणि नाटकादीनि । 'रूपित' अर्थात् अभिनय द्वारा प्रदर्शित किये जाते हैं इसलिए नाटकादि 'रूपक' कहलाते हैं। इससे अनभिनेय है (काव्यादि) वहां 'रूप' शब्द अप्रतीत ही रहता है। अतः वाणी का सामान्य निर्देश होने पर भी वाणी अभिनेय - नाटकादि रूप ही समझी जानी चाहिए । वैसे 'अभिनेय' के बारह से भी ज्यादा भेद हैं, किन्तु प्रस्तुत प्रकरणानुसार 'द्वादश' पद कहा है । 'विश्वम्' पद पहली व्याख्या के समान यहां भी समुदायवाची ही है। समवकार आदि रूपक प्रकारों में देवता आदि का चरित्र निरूपण होता है इसलिए नाटक में भी समस्त विश्व का (केवल मर्त्यलोक का ही नहीं) समावेश होता है । 'पथि' पद यश सम्पादन का उपाय होने से उत्तम कार्यों को बोधित करता है । नायक और प्रतिनायक के विषय में धर्म और अधर्म के फलों को दिखलाकर नाटकादि दुर्दान्तचित्त (अधर्मियों) के व्यवहार को भी न्याय्य मार्ग में व्यवस्थापित करते हैं ।
___ इस व्याख्या में भी श्रद्धापरक होने से यह पद्य नमस्कार सूचक ही समझना चाहिए । इस पद्य को विवरण के प्रारंभ में और मूल ग्रन्थ की कारिका रूप में यह सूचित करने के लिए रखा गया है कि मूलग्रन्थ और वृत्ति दोनों के कर्ता अभिन्न हैं । (ना.द. पृ. ११, १२)
मंगलपरक और अभिनयपरक दो प्रकार के विवरण से निम्नोक्त तथ्य उभर आते हैं । (१) परंपरा अनसार मंगल पद्य में इष्ट और समचित देवता को नमस्कार किया गया है। यहां इष्ट और
समुचित देवता जैनी वाणी ही है । वाणी की प्रशंसा से समग्र कृति और अर्थ की प्रशंसा व्यञ्जित
होती है। (२) रागादि के जेता हैं वे जिन हैं उनकी वाणी अर्धमागधी भाषा जो अर्थापेक्षा भरतादि मुनि की भी
वाणी है क्योंकि ऋषि रागादि जेता जो हैं उन्हीं की (जिनों की) वाणी कहते हैं। भाषा चाहे संस्कृत हो । भले ही वे अर्वाचीन हो, पर नूतन दृष्टिवाले हैं अतः ग्रन्थकार भरतादि की भी प्रशंसा करते
(३) धर्म - अर्थ - काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ चतुष्टय जैनी वाणी का फल है । नाट्य के संदर्भ में
प्रथम तीन पुरुषार्थ ही फलरूप हैं किन्तु धर्म से मोक्षरूपी पुरुषार्थ का भी आक्षेप हो जाता है । (४) वाणी 'द्वादशाङ्गी' है। वैसे ४५ जैन आगम हैं, परंतु यहाँ सूत्रकृतांगादि बारह अंग आगमों का निर्देश
ही उचित समझा गया है। क्योंकि अभिनयपरक अर्थ में प्रस्तुत वाणी नाटकादि बारह प्रकार के रूपकों को धारण करती है और जगत को न्याय्य मार्ग में व्यवस्थापित करती है। रूपकों में नाटकादि को देखते हुए अधर्म के पथ पर जो हैं वे उद्धत मनुष्य भी न्याय्य पथ पर - धर्म के पथ पर प्रतिष्ठित होते हैं। क्योंकि नाटकादि में राम की तरह जीना चाहिए रावण की तरह नहीं, यही उपदेश
व्यञ्जित होता है। (५) 'नित्य' विशेषण दोनों अर्थ में चतुर्वर्ग और 'उपास्महे' के साथ जुडता है । नित्यम् - आवश्यक
वाणी जो चतुर्वर्ग प्रति कारणरूप है । 'उपास्महे से तदर्थानुष्ठान से उस वाणी की समीप में रहते हैं यह विदित होता है। अर्थात् नैरन्तर्य सूचित होता है। अभिनयपरक अर्थ में चतर्वर्गफल रूप
जैनी वाचमुपास्महे- (हम जैनी वाणी की उपासना करते हैं)* - काव्यानुशासन और नाट्यदर्पण ...
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