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________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मोढेरा जैन तीर्थ के रूप में यथेष्ट प्राचीन समय से ही प्रसिद्ध रहा है। मोढब्राह्मण और मोढवणिक शाति की उत्पत्ति यहीं से हुई। यशोभद्रसूरेगच्छीय सिद्धसेनसूरिविरचित सकलतीर्थस्तोत्र [रचनाकाल ई. सन् १०७५ प्रायः] में जैनतीर्थस्थानों की सूचि में इस स्थान का उल्लेख है ।८ प्रबन्धग्रन्थों में यहाँ स्थित महावीर स्वामी के जिनालय का उल्लेख प्राप्त होता है जो मोढ ज्ञाति का प्रधान चैत्य और संभवतः इस ज्ञाति से भी प्राचीन माना जाता है। प्रभावकचरित में बप्पम दृसूरि द्वारा यहां दर्शनार्थ आने और सिद्धसेनसूरि द्वारा यहां वन्दन करने का उल्लेख है । पुरातनप्रबन्धसंग्रह के अनुसार वलभी की नगर देवता द्वारा वलभी भंग के समय वर्धमानसूरि को निर्देश दिया गया था कि साधुओं को जहां भिक्षा में प्राप्त क्षीर रूधिर हो जाये और फिर रूधिर से पुनः क्षार हो जाये, वहां उन्हें ठहर जाना चाहिए । इस प्रकार वे मोढेर में ठहरे ।११ पाटला स्थित मोढचैत्य भी मोढेरा के महावीर-जिनालय की भांति ही प्राचीन रहा है। यह जिनालय नेमिनाथ को समर्पित था । प्रभावकचरित के अनुसार यह चैत्य सिद्धसेनसूरि के आधिपत्य में था३ । अंचलगच्छीय महेन्द्रसूरि द्वारा रचित अष्टोत्तरीतीर्थमाला[रचनाकाल वि. सं १२८७ /ई. सन् १२३१ के पश्चात् के अनुसार कन्नौज के राजा आम ने इस जिनालय का निर्माण कराया था ।१४ वि. स. १३६७/३. सन् १३११ म शखेश्वरपाश्वनाथ का यात्रा को जाते हुए खरतरगच्छी जिनचन्द्रसरि 'द्वितीय' यहां पधारे थे । १५ वि. सं. १३७१/ई. सन् १३१५ में आदिनाथ जिनालय के जीर्णोद्धार से लौटते हुए समराशाह शंखेश्वर और मांडली के साथ यहाँ भी दर्शनार्थ आये थे । जिनप्रभसरिने कल्पप्रदीप के ८४ तीर्थस्थानों की सूची में इस तीर्थ का उल्लेख किया है और यहां नेमिनाथजिनालय होने की बात कही है । १७ गुजरात पर मुस्लिम आक्रमण के समय यहां स्थित जिनालय को भी क्षति उठानी पड़ी किन्तु खरतरगच्छीय अनुयायियों तथा समराशाह में यहां आने के पूर्व ही वह पुनः अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर चुका था।1८ खरतरगच्छीय विनयप्रभसूरि [ई. सन् १३७५] और रत्नाकरगच्छीय जिनतिलकसरि ई. सन् १५ बीं शती का अंतिम चरन] ने भा यहां स्थित नेमिनाथ जिनालय का उल्लेख किया है ।१४ मोढज्ञाति का तीसरा चैत्य धंधूका में था जो मोढवसहिका के नाम से जाना जाता था । पूर्णतल्ल. गच्ळीय आचार्य देवचन्द्ररि को अपने भावी शिष्य चांगदेव [हेमचन्द्राचार्य] से यहीं मैट हुई थी ।२० आख्यानकमणिकोश [रचनाकाल वि. सं. १२ वी शतो/ई. सन् ११-१२ वी शती] की प्रशस्ति में भी बस चैत्य का उल्लेख प्राप्त होता है ।२१ तपागच्छीय जिनहर्षगणि द्वारा रचित वस्तपालचरित रचनाकाल वि. सं. १४९७/ई. सन् १४४१] के अनुसार तेजपाल ने इस जिनालय के रंगमण्डप का जीर्णोद्धार कराया था ।२२ था जिसमें बप्पभट्टिसूरि द्वारा प्रभावकचरित के अनुसार अणहिलपुरपत्तन में भी एक मोढचैत्य जिनप्रतिमा प्रतिष्ठापित की गयी थी ।२३ मण्डली [वर्तमान मांडल] में भी वस्तुपाल के समय एक मोढचैत्य था । वस्तुपालचरित के अनुसार उसने या उसके लधुभ्राता ने] यहां मूलनायक की प्रतिमा निर्मित करायी थी ।२४ 126] [ Samapya: April, '91-March, 1992 For Private and Personal Use Only
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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