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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मौढगच्छ और मोढचैत्य - शिवप्रसाद* निर्ग्रन्थदर्शन के श्वेताम्बर आम्नाय के अन्तर्गत चन्द्रकुल से निष्पन्न गच्छों में मोढगच्छ भी एक है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है मोढेरक [वर्तमान मोढेरा, उत्तर गुजरात] नामक स्थान से इस गच्छ को उत्पत्ति हुई । इस गच्छ का सर्वप्रथम उल्लेख धातु की दो प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों में प्राप्त होता है । प्रथम लेख पार्श्वनाथ की त्रितीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। श्री साराभाई मणिलाल नवाब ने इस लेख की वाचना दी है', जो कुछ सुधार के साथ इस प्रकार है: "श्रीचन्द्रकुले माढ [मोढ गच्छे मुक्ति सामिहय श्रावको गोछी नमामि जिनत्रय ।" द्वितीय लेख पार्श्वनाथ की अष्टतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। श्री उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने इसकी वाचना इस प्रकार दी है२ : "ॐ श्रीचन्द्रकुले मोढगच्छेनिन्नट श्रावकस्य ।" उक्त दोनों लेखों में न तो प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य का उल्लेख है और न ही उनकी प्रतिष्ठातिथि/ मिति आदि की चर्चा है। फिर भी उक्त प्रतिमाओं के प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन और लेख की लिपि के आधार पर इन्हें वि. सम्वत् की ११वीं शती का माना गया है। मोढगच्छ से सम्बद्ध तृतीय और अंतिम लेख वि. सं. १२२७ / ई. सन् ११६१ का है जो एक चतुर्विशतिपट्ट पर उत्कीर्ण है । यह पट्ट आज मधुवन-सम्मेतशिखर स्थित जैन मंदिर में सुरक्षित है। श्री पूरनचंद नाहर ने इस लेख की वाचना की है, जो इस प्रकार है: "सं. १२२७ वैशाख सुदि ३ गुरौ नंदाणि ग्रामेन्या श्राविकया आत्मीय पुत्र लूणदे श्रेयोर्थ चतर्विशति पट्टः कारितः ॥ श्रीमोढगच्छे बप्पभट्टिसूरिसंताने जिनभद्राचार्यः प्रतिष्ठिता ॥" इस लेख में मोढगच्छीय बप्पभट्टिसूरि के संतानीय अर्थात् उनकी परम्परा में हुए जिनभद्राचार्य का चतुर्विशतिपट्ट के प्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख है। मोढगच्छ से सम्बद्ध साहित्य साक्ष्यों के अन्तर्गत दो उल्लेख प्राप्त होते हैं। इनमें प्रथम साक्ष्य है वि. सं. १३२५ की कालिकाचार्यकथा की प्रतिलिपि की दाताप्रशस्ति-जिसमें मोढगुरु हरिप्रभसूरि का उल्लेख है। द्वितीय साक्ष्य है राजगच्छीय आचार्य प्रभाचन्द्रविरचित प्रभावकचरितं [रचनाकाल वि. सं. १३३४/ई. सन् १२७८] के अन्तर्गत "बप्पभट्टिसूरिचरित", जिसमें पाटला स्थित नेमिनाथजिनालय के नियामक के रूप में मोढगच्छीय सिद्धसेनसूरि का उल्लेख है। प्राध्यापक मधुसूदन दांकी के अनुसार इस गच्छ के अनुयायी मुनिजन चैत्यवासी थे और वे जिनालयों से संलग्न उपाश्रयों में रहा करते थे। मोढेरा इनका प्रधान केन्द्र था । इसके अतिरिक्त पाटला, चंचूका, अणहिलपुरपत्तन और मांडला में भी इनके चैत्य थे।" * रिसर्च एसोसिएट, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। मोढगच्छ और मोढचत्य] [125 For Private and Personal Use Only
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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