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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थके पल पथ नाव धीरज, परति नहि न गही। मिली सूर सुभाव स्यामहि, फेरिहू न चही ॥" (सू.सा., 2381) श्रीमद भागवत के दशम स्कंध में 14 श्लोक 39 से 52 भ्रमरगीत नाम से जाने जाते हैं । विरह दग्ध गोपिकाए अपनी समस्त वेदना श्रीकृष्ण के मंत्री प्रवर एवं प्रिय सखा उद्वव के समक्ष नि हैं । गोपिकाओं के हृदय सिन्धु में उमड़ती उच्छल प्रेम को विरह तरंगो को देखकर उद्धव हतप्रभ हो जाते हैं मानो वे इस महाभाव के सागर में डूब गए हों। उनका समस्त ज्ञानाहंकार विनम्र हो कर भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगता है । "प्रभु मुझे तो वृन्दावन की लता औषधि बना देना जिससे गोपिकाओं के चरणा से उड़ा हुई रज मर मस्तक पर गिर कर मुझे कृतार्थे कर दे । सूरदास भी इसी भाव की कामना करते हैं: “कहा जनम जो नहीं हमारो, फिरि-फिरि ब्रज अवतार भलौ । वृन्दावन द्रुम-लता हुजिये, करता सौ मांगिये चलौ ॥" सू.सा., पृ. 620) अपने प्रेमास्पद के लिए जो विरह-वेदना और व्याकुलता सूरदासने भ्रमरगीतमें अभिव्यक्त की है वैसी संभवत: विश्व साहित्य में नहीं पाई जाती । उद्धवजी आश्वस्त हो गया कि गोपिकाओं का अपने परम प्रिय पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र से मिलन ही नहीं वरन् ऐक्य हो चुका है। जैसे जैसे हम सूर सागर के अन्तिम पदों तक पहुंचते हैं उनका यह दिव्य मिलन जीव और ब्रह्म के रसात्मक ऐक्य में परिणत होने लगता हैं। "राधा माधव के रंग राचे, राधा माधो रंग गई। राधा माधव प्रोति निरंतर, रसना कहि सो कहि न गई। विहंसी कह्यो हम तुम नहिं अंतर यह कहि के उन ब्रज पठभी। सूरदास प्रभु राधा माधव ब्रज विहार नित नई नई (वही, 4910) यही शुद्धाद्वैत का ब्रह्म और जीव की एकता में भजनानन्द का भेद रखते हुए अभिन्न ऐक्य हो जोता हैं । यह सर्वोच्च मुक्ति है एवं शुद्धाद्वैत के अंतिम लक्ष्य की परिपूर्ति ।। वल्लभाचार्य का युग ऐतिहासिक दृष्टि से संक्रमण काल का युग था । एक ओर भिन्न भिन्न प्रदेशों के राजा निरंतर युद्ध रत थे और दूसरी ओर विदेशी शक्तियाँ उन्हें पराभूत कर अपना शासन जमा चुकी थीं । जनता में विपन्नता और नैराष्य छाया हुआ था । ऐसी विषम स्थिति में वल्लभाचार्य एवं सूरदास का आना एक ऐतिहासिक अनिवार्यता था। उनके प्रेम मैत्री एवं आत्म विश्वास के सन्देश ने सब लोगों को पुनः अस्मिता एवं आत्म सम्मान प्रदान किया । जब जन के जीवन में पुन: नव उत्साह, नव जागरण, नव चेतना का संचार हुआ । नीरस जीवन नव रसधारा से रससिक्त हुआ । वल्लभाचार्य और सूरदास की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी पहले थीं, संभवत: आज अधिक आवश्यक है जब हिंसा, प्रतिशोध एवं मूल्यों के ह्रास ने समूचे देश एवं विश्व को प्रदुषित कर रखा । सूरदास के मधुर पद आज भी जन-जन में प्रेम, मैत्री, एवं भ्रातृत्व भाव संचार करने में सक्षम हैं। 12411 [ Samapya : April, '91-March, 1992 For Private and Personal Use Only
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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