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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह कामना होइ क्यों पूरन, दासी हवै बर ब्रज रहिये । सूरदास प्रभु अन्तर जामी, ति नहि बिना कासौ कहिये ।। (सू.सा., पृ. 620) सूरदासने दैन्य भाव के अगणित पद लिखे हैं। सूर सागर का प्रारंभ ही वे विनय के पदों में करते हैं। "माघौ जू तुम कब जिय बिसरयौ (9) जो जानौ यह सूर पतित नाहि, तौ तारो निज देत । (वही, पृ. 51) “नाथ सकौं तो मोहि उधारौ । पतितन में विख्यात पतित हो पावन नाम तुम्हारी ।" (वही पृ. 43 वल्लभाचार्य मनौवैज्ञानिक स्तर पर गोपिकाओं का यानी भक्तों की विभिन्न प्रवृत्तियों का गुणों के आधार पर विश्लेषण करते हैं। श्रीमद् भागवत की रास पंचाध्यायी के पांच अध्यायों में रासलीला या जीव एवं ब्रह्म-गोपिकाओं एवं श्रीकृष्ण के मिलन की दिव्य लोला का वर्णन किया गया है। इस महारास के वर्णन में यह दृष्टव्य है कि श्री वल्लभाचार्य ने सुबोधिनी भाष्य में कहीं राधा का उल्लेख नहीं किया है । उन्होंने राधा के बारे में अपने अन्य ग्रन्थों में भी कही कोई चर्चा नहीं की है। श्रीमद् भागवत में भी श्री राधा का नाम कहीं भी उद्धृत नहीं है। किन्तु सूरदास एवं अन्य अष्टछाप कवियों ने राधा का नाम विपुल वर्णन किया है । राधा को ब्रह्म की आहुलादिनी शक्ति या आनन्द प्रदान करनेवाली शक्ति माना है। सुष्टिकारिणी शक्ति या रस-रूप श्रीकृष्ण, या परब्रह्म की संसूति शक्ति माना है। अतः श्री राधा एवं श्रीकृष्ण अभित्र हैं । उनका अनन्त मिलन “रासक्रीडा" में अभिव्यक्त है। राधा और कृष्ण की अभिन्नता एवं ऐक्य पर कितने विलक्षण पद सुरदास ने लिखे हैं, जिसमें कृष्ण का आधा स्वरूप राधा एवं आधा कृष्ण बन जाता है, इसी स्वरूप में वे व्रज में अवतरण करते हैं । यह कृष्ण का अर्धनारीश्वर स्वरूप है। हर पुरुष में स्त्री, स्त्री में पुरुष निहित है इसका उल्लेख ऋग्वेद में आया है "स्त्रीयः सतीस्ताइमे पुंस आहुः" (ऋग्वेद-7-194-19) ने इसी भाव को आधुनिक मनोवैज्ञानिक सी. जी. अंग "ओनीमा" और "अनीमस" कहते हैं । और चीनी संस्कृति में यिंग और मैंग कहते हैं । दृष्टव्य हैं सूरदास के पद: "राधा हरि, आधा आधा तनु एकै, हवे है व्रत में अवतरी ।। सूर स्याम रसभरी उमंगि अंग, वह छबि देखि रह्यो रति पती हरि ॥" (स. सा., 2311) "सुनि बृषभानु सुना मेरी बानी, प्रीति पुरातन राखह गोई। सूर स्याम नागरिहि सुनावत, मैं तुम एक, नहिं हैं दोई ॥" (वही, 2310) अनादेत दर्शन शंकर मत के अनुरूप समस्त सृष्टि को दिव्य मानता है और हर जीव की मूलभूत दिव्यता को स्वीकार करता है । ज्ञान के महत्व को विशिष्ट मानते हुए भी उसका विशेष बल भाव एवं भक्ति पर है । यह भावपक्ष को परिष्कार करते हुए जीव को भगवद् मिलन का मार्ग प्रशस्त करता है। जहां जीव भक्त परम पुरूष भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के महानीलोदधि में मिलकर धन्य हो जाता है। "चितवनि रो के हूं न रही। स्याम सुन्दर सिन्धु-सनमुख, सरिता उम्रगि बही ॥ प्रेम सलिल प्रवाह भंवरनि, मिति ने कबहुं सही । लोभ-लहर-कटाक्ष घूघट-पट-कगार दही ॥ सूरदास एवं शुद्धाद्वैत ] [ 123 For Private and Personal Use Only
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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