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आनंदघनजी के कतिपय अप्रसिद्ध पद
-ले.श्री अगरचंद नाहटा
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आध्यात्म मुनियों है और १९ वीं शताब्दी की प्रतियों में ७२ में आनंदघनजी एक योगी और उच्च कोटि के से अधिक प्रायः ८५ से ९५ की संख्या के आत्मानुभवी सन्त के रूप में सर्वाधिक प्रसिद्ध बीच के पद लिखे हुए है जबकि भीमसी है । उन्होंने ग्रन्थ रूप में तो कुछ लिखा हो
माणेक एवं अन्य प्रकाशकोंने आनंदघनजी मुझे जानकारी नहीं है पर उनके रचित
के पदों के जो संग्रह निकाले है उसमें उनकी चौवीसी के बाईस स्तवन और आध्यात्मिक पद
संख्या ११२ तक भी पहुंच गई है । इनमें
से कई पध तो आनंदघनजी के रचित नहीं ही ही प्राप्त है और उन्हीं के कारण वे इतना
है, यह सिद्ध किया जा चुका है फिर भी हस्तलोकादर व प्रसिद्धि प्राप्त कर सके । उनके
लिखित प्रतियों और छपे हये ग्रन्थों में आनंदरचे हुये स्तवनों के संबंध में तो यह सर्वमान्य
घन के नाम से ऐसे पद भी मिलते है जो है कि बाईस स्तवन ही उनके प्राप्त है इसी
११२ में भी सम्मिलित नहीं है । निश्चयपूर्वक लिये अन्तिम पार्श्वनाथ और महावीर के २
नहीं कहा जा सकता कि ये पद आनंदघनजी स्तवन अन्य कवियोंने बना कर उनकी चौवीसी
ता के ही है क्यों कि उनकी भाषा और शैली अन्य की पूर्ति की । पर 'पद' उन्होंने कितने बनाये,
* बनाय, पदों से मेल नहीं खाती फिर भी सम्भव है इसके संबंध में कोई प्राचीन प्रमाण प्राप्त नहीं से कळ पदों में आनंदघनजी के भी पद मिल है। पदों की हस्तलिखित जो प्रतियां मिलती जाय इस लिये उनकी और विद्धानों की ध्यान है उनमें भी पदों की संख्या एक समान नहीं .. आकर्षित करने के लिये उन्हें प्रकाशित करना है । साधारणतया उनके पदसंग्रहको. बहुत्तरी आवश्यक समझता हूं। सर्वप्रथम एक हस्तकी संज्ञा दी जाती है उससे तो उनके रचित लिखित पत्र में जो आध्यात्म सजाय के नाम पदों की संख्या ७२ होनी चाहिये पर.७२ से पद लिखा मिला है उसे दे रहा हूं। इसके पदोंवाली एक भी प्रति अभी तक कहीं भी बाद कर्पूर तत्व सार' नामक प्रन्थ के पृष्ट देखने व जानने में नहीं आई । कुछ प्राचीन १८२-१८३ में जो पद्य छपे हैं उन्हें दिया जा प्रतियों में तो पद ७२ से भी कम मिलते रहा है। .
कूड़ी दुनी हंदा बे अज व तमासा ॥ पाणी की भीत पवन का थंभा, बाकी कब लग आसा । क्ली १ झटा . बधार भये नर मुनी, - मगन भया जैसा भेसा । चंबडी उपर खाख लगाई, फिर जैसा कर तैसा । कू. २ कोडी कोडी कर एक पइसा जोडया, जोड्या लाख पचासा । .. जोड़ जोड़ कर काठी कीनी, - संग न चल्या एक मासा । कू. ३
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