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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इसके बाद चार दालों में एक-एक कषाय का वर्णन किया गया है। क्रोध का १४ पद्यों में वर्णन करके अन्त के पद्य में कविने अपना ओर अपने गुरु का नाम दे दिया है। उसके अनुसार इस कृति का रचयिता पुण्यतिलक का शिष्य विद्याकीर्ति था यथा सीख सुणी ए बड़ी रे, हृदय धरो सुविचार रे पुण्यतिलक गुरू सानिधै, विद्याकीरति सुखकार ।। १८ ।। दूसरी ढाल में मान कषाय का वर्णन पद्यांक ३४ तक में और तीसरी ढाल में माया का पद्यांक ४९ तक में वर्णन १ चौथी ढाल में लोभ का वर्णन पद्यांक ५९ तक इस कृति में है । इसके बाद का पत्र प्राप्त न होने से आगे ओर कितने पद्य हैं ? निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता पर वर्णन से लगता है कि अधिक पद्य नहीं होंगे। दो-चार पद्यों में ही लोभ का वर्णन समाप्त करके कविने प्रशस्ति दे दी होगी। प्राप्त प्रति ३ पत्रों की है। अक्षर बड़े और सुन्दर और बोर्डर बेल-फूलों से चित्रित है । प्रति १७ वीं शताब्दी की अर्थात् रचना के समय की ही लिखी हुई है । जैन गुर्जर कविओ भाग ३ के पृष्ठ ९५६ में इसी विद्याकीर्ति की ३ रचनाओं का विवरण छपा है। नरवर्म चरित्र सं. १६६९, (२) धर्म बुद्धि मंत्री चोपई सं. १६७२ । यह रचना दो खण्डों में है। इसकी जो प्रति प्राप्त हुई है उसमें ११ दालों का प्रथम खण्ड तो पूरा - है पर दूसरा खण्ड अपूर्ण है। प्रति १२ पत्रों की है । १३ दाल के बाद अन्तिम पत्र नहीं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। प्रथम खण्ड के अन्त में कविने अपना परिचय देते हुये खरतरगच्छ के आचार्य • जिनसिंहसूरि का उल्लेख किया है। प्रथम खण्ड की कुल गाथायें २०३ हैं । रचनाकाल की अंतिम प्रशस्ति न होने पर भी प्रतिके संवत् १६७२ - बीकानेर में लिखे जाने का उल्लेख प्रथम खण्ड के अन्त में पाया जाता है । अतः यह प्रति भी रचना के समय की ही लगती है। (३) सुभद्रा सती चोपई, सं. १६७५, जैन 'शाला भण्डार, खंभात (४) मंतिसागर (रसिक मनोहर) चोपई सं. १६७३ का० सरसा पाटण में रचित । इसकी प्रति हमारे संग्रह में है । ॐ पांचवी रचना प्रस्तुत ४ कषाय संधि की प्रति का विवरण उपर दिया जा चुका है । 'कवि की अन्य रचनायें सं. १६६९ से १६७५ तक की मिली हैं । इस लिये कषाय संधि का रचनाकाल भी इसी के आस-पास का समझना चाहिये | कवि खरतरगच्छ को खेम शाखा में हुये हैं। जैन गुर्जर कविओं के अनुसार क्षेमराज - प्रमोद माणिक्य-क्षेम सोम-पुण्यतिलक यह गुरू परम्परा की नामावली है। पुण्यतिलक रचित नरपति जय र्या वृत्ति और महायु नामक दो ज्योतिष की रचनायें प्राप्त हैं पर उनके रचयिता पुण्यतिलक विद्याकीर्ति के गुरू हैं या अन्य हैं, निर्णय करना शेष है । प्रस्तुत ४ कषाय संधि में एक-एक कषाय का दोष बतलाते हुये अनेक दृष्टान्त कथाओं का उल्लेख कर दिया गया है। पाठकों की जानकारी के लिये क्रोध कषाय वाली पहली ढाल यहां दे दी जाती है । प्रारम्भः के तीन दोहे पहले दिये जा चुके हैं उसके बाद प्रथम ढाल चाल होती है For Private And Personal Use Only
SR No.533948
Book TitleJain Dharm Prakash 1965 Pustak 081 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1965
Total Pages16
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size6 MB
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