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શ્રી જન ધમાં પ્રકાશ
[पोष-मा
ज्ञानी प्रत्ये श्रीआनंदघनजी महाराजनी वात्सल्यता होय ए बन्नेय संभवित छे छतां, उपाध्यायजी महाराजनी अष्टपदी श्री आनंदघनजी महाराज की स्तुतिरूप होय, एम हजु माझं मन कबूल करतुं नथी। परन्तु आत्मारूप आनंदघनना ज कोई आध्यात्मिक स्वरूपर्नु ज तेमा वर्णन मने मासे छे. पछी शब्दश्लेषथी कदाच आनंदधनजी महाराजनी स्तुति होय तो कोण जाणे ? पण मने हजु ए भास थतो नथी, भारी समझनी पण भूल होय परन्तु स्तुतिनुं स्वरूप ए भास उत्पन्न करतुं नथी, छतां ज्ञानी परमात्मा जाणे।" __श्रीमद् आनन्दघनजी का नाम लाभानंदजी था यह श्रीमद् देवचंद्रजी के प्रश्नोत्तर ग्रन्थादि से सिद्ध है । उनका निवास मेडते में विशेष होने का भी प्रवाद है। वहीं उनके नाम उपाश्रय होने का भी कहा गया है, जिसके खरतरगच्छीय होने से बहुश्रुत श्री जिनकृपाचंद्रसरिजी का कहना था कि श्रीमद् आनंदघनजी खरतरगच्छ के थे । मैं वर्षों से प्रयत्न में था कि इस प्रवाद की प्रमाणिकता के लिये कोई समकालीन निश्चित उल्लेख मिलजाय तो ठीक है । बडे ही हर्ष की बात है कि इस बार जेसलमेर जाने पर मुनि पुण्यविजयजी के जैन लेखनकला ग्रन्थ में रखा हुआ १ पत्र ऐसा मिला है जिससे इसकी पुष्टि ही है। ___ यह पत्र सूर्यपुरी में स्थित खरतरगच्छीय जिनरत्नसूरि के पट्टधर जिनचंद्रसूरि को मेडता से पाठक पुण्यनिधान जयरंग, तिलोकचंद एवं चारित्रचंद्रादि ने दिया है। पत्र संस्कृत भाषा में ( १३ श्लोको में ) लिखा गया है और उसके बाद कई समाचार लोकभाषा में लिखे गये हैं। उनमें महत्वपूर्ण उल्लेख इस प्रकार है.
" पं. सुगणचंद्र अष्टसहस्री लाभाणंद आगइ भणइ छइ, अर्द्ध रह टाणइ भणी । घणुं खुशी हुई भणावइ छइ ॥"
पत्र देनेवाले पुण्यकलश, जयरंगादि के गुरु थे। जयरंगजी के रचित दशवै. कालिक सज्झायें आदि रचनायें सं. १७०० से १७३९ तक की उपलब्ध है। पत्र में संवत का उल्लेख नहीं मिलता, केवल तिथि आश्विन शुक्ला १३ लिखी हुई हैं। अतः संवत का पता लगाना आवश्यक है। संवत का पूरा निर्णय के लिये वो निश्चित साद्यन्त तो नही मिला पर संवत का अनुमान किये जा सकने के साधन , इस प्रकार है।
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