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सुवर्ण महोत्सव में. :: ___ थी उसीसे मिलती जुलती मनोवृत्ति आधुनिक वैज्ञानिकों में भी है। * हां, इस ढाइ हजार वर्ष के लंबे समयमें शोधके साधन तथा विषयमें
बहुत परिवर्तन हुआ है; परन्तु मनोवृत्ति तो वही है, निष्पक्षता तो वही है; ईस लीये जैनियोंको इस क्षेत्रमें सबके आगे बढ़कर जगतको सत्यकी नई नई खोजें देना चाहिये था; परन्तु जैन समाज इस विषयमें सबसे अधिक पिछड़ा हुआ है। साथ ही मैं तो यहांतक समझता हूं कि आज जैन समाजमें आइन्स्टीन सरीखा भी वैज्ञानिक पैदा हो तो हमारा जैन समाज उसे धर्मनाशक कहकर अलग कर देगा। महावीरस्वामीने जो विवेक-विचारकताका पाठ पढ़ाया था, द्रव्यक्षेत्र-काल-भावकी विविधताका ज्ञान कराया था वह हममें नहीं है। आज जैन कुलोत्पन्नों की संख्या बारह लाख है, परन्तु जैनियों की संख्या बारह है कि नहीं, यह एक विचारणीय प्रश्न हैं ।
महावीरस्वामी के चौमासे, कुम्हार के घरमें होते थे और उनके मतानुसार स्त्रियां मोक्ष भी जाती थी-तीर्थंकर भी होती थीं। किसी भी वेपसे मुक्ति प्राप्त की जा सकती थी। शारीरिक कल्पित शुद्धाशुद्धि से आत्मकल्याण का कोई संबंध नहीं था, परन्तु आज हममें यह उदारता कहां है ? आज हमारी पाचनशक्ति नष्ट हो गई है, समभाव नष्ट हो गया है, न्यायप्रियता शून्य हो गई है, सिर्फ अपने भाइयों और बहिनोंको धक्का देकर निकालने की वहादुरी (?) शेष रह गई है, क्या यही हमारी वीरभक्ति है ? क्या यही हमारा जैनत्व है ?
हमारा काम है कि हम जैनीयों में जैनत्व भरें, मनुष्योंको मनुष्यत्व सिखावें और स्वयं सीखें तथा मनुष्यमें निष्पक्षता, विचारकता, सत्यप्रियता, पैदा करने के साथ विश्वभ्रातृत्व की झांकी दुनियां को दिखावे ।इस मार्गमें आपका पत्र अधिक से अधिक काम करे यही मेरी इच्छा है । इस सुवर्णमहोत्सव के अवसर पर भी मैं पत्रको कुछ भेट न
दे सका इसका मुझे खेद होता है, परन्तु मेरी हार्दिक भावना है कि । जैन धर्म प्रकाश अपने नामके अनुसार काम करता हुआ चिरंजीवी हो!
दरबारीलालजी ( सत्यभक्त ).
RAJull
ILAM
MLAJI
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