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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ||3||f. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्याद्वादकी पूजा ભાઇશ્રી દરખારીલાલજી પાતાની સ્વત ંત્ર વિચારશૈલી માટે હમણાં હમણામાં બહુ મ્હાર આવ્યા છે. તેઓ જો કે દિગમ્બર સંપ્રદાયના છે, પણ પોતે તો સત્યભક્ત તરિકે જ એળખાવા માગે છે. એમણે ખૂબ ખૂબ વાંચ્યું છે, વિચાર્યું છે. એમની અનેાખી પદ્ધતિએ મિત્રા અને વિધીએ પણ ઉપજાવ્યા છે. પ્રસ્તુત સ ંદેશમાં જૈન દર્શનના સ્યાદ્વાદ તથા વૈજ્ઞાનિકતા વિષે એમણે જે ઇસારો કર્યો છે તે જૈન સાહિત્યના સેવકા અને શાસનના હિતેષીએ માટે ઉપયાગી છે. किसी भी जैन पत्रसे इस युग में अगर कोइ आशा रक्खी जा सकती है तो वह है स्याद्वाद के व्यावहारिक रूपके प्रचारकी । स्याद्वाद - जिसे कि सर्व धर्म समभावका अर्क कह सकते है — ही जैनधर्म का कीमती उपहार है । जिस स्याद्वादने ३६३ मतका समन्वय कया है वही आज श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासीयोंका समन्वय नहीं कर सकता, यह इस बातका प्रवल प्रमाण है कि आजका जैन समाज स्याद्वाद की पूजा नहीं करना चाहता । यदि हम स्याद्वादकी व्यापक और वास्तविक व्याख्या करके उसे व्यवहार में उतारे तो धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, रंगके नाम पर, वर्ग के नाम पर लडता हुआ मनुष्यसमाज अपनी मूर्खता को समझ कर अवश्य ही विश्वबन्धुत्वका पाठ पढने के लिये तत्पर हो जावे, परन्तु जब हन स्वयं ही वह पाठ नहीं पढ़ पाये तब दूसरों को क्या पढ़ायेंगे ? जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है और आजका युग भी वैज्ञानिक है, परन्तु जैन समाज को देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह वैज्ञानिक धर्मवालों का समाज है । एक वैज्ञानिक की मनोवृत्ति में और हमारी मनोवृत्ति में जमीन आसमान से भी अधिक अन्तर है । हम तो आज रूढी के गुलाम हैं, परंपराओं के पूजारी है, विवेक से काम लेना हम अधर्म समझते है । महावीरस्वामी के समय में और उनके पीछे भी जैन धर्म प्रचारकोंकी मनोवृत्ति में जो वैज्ञानिकता थी, निःपक्षता थी, सत्यकी प्यास For Private And Personal Use Only
SR No.533595
Book TitleJain Dharm Prakash 1935 Pustak 051 Ank 01 Suvarna Mahotsav Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1935
Total Pages213
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size73 MB
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