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'यश्या५.
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ति श्री विश्वशंभु वचन प्रामाण्यात् अःशिवः ततोऽनश्चअश्चअश्चअ. जाः श्रियाउपलक्षिताअनाः श्रीअनाः श्री ब्रह्म विश्न शिवाख्या स्त्रयोपिदेवानोऽस्माकंईः श्रीरितिश्रीअमरकविवचनप्रामाण्यात्ईः श्रीस्तस्यास्तत्सं बंधिवा सौख्यं ऋद्धि सौख्य मितियावत् अददत् अदुरित्यर्थः इदंतत्तत्सेवकानां वननं अनराशब्दोव्यवधानेन पितातिकवाठिपे वित्रादित्वात्नदोषभारपायन ध्वम्तममो भव गवलिनियात्कायःमरास्त्री
नगयो तगहारयोगंगांचयोधारयन्यस्याहुःशशिमच्चिो हा ति म्या पंचनामामराःपागात्सस्वरमंधकक्षयकरस्तवां मवेदोमाधवः १ इत्यादि एवमग्रेपि सतिप्रयोजने अनुसतव्यं ॥ ३ ॥
"राअजानोददतेसौख्यं" रारमारमणीवालेतिवचनात् रारमणीनो ऽस्मभ्यंसौरयंददते किं राअजा अजश्छाछागे हरे विभौरघुवधपिमरे इति श्री हैमानेकार्थवचनात् अजहरं १ विश्नु २ रघुनं ३ ब्रह्माणं ४ स्मरं ५ वा अटति अतति गच्छतीतिअजा पार्वती १ लक्ष्मीः २ इंदुमती ३ सावित्री ४ रतिश्च ५ इदंतत्तद्भक्तानांवचनं अर्थाः सर्वे ॥
५--खंडन असत्यका होता है सत्यका नही. यद्यपि कोइ जूठ को अपनी कल्पनासे सत्य सिद्धकर देवे तदपि असत्य असत्यही है. जैसें कोइ अज्ञ अत्यंत व्यभिचारिणी स्त्रीका अपनी कल्पनासें शीलवती सिद्ध कर देवे तो उसको बुद्धिमान् सत्यका पक्षी नहीं मानेंगे यद्यपि शीलका पक्षकरना अच्छा है तोभीतिस पुरुषकों शीलका प.. क्षकरनेवाला नही मानना चाहिये. जो धर्म सत्यरूप है सो नवीन नहीं है तिसके प्रतिपादक शास्त्रके उपर भाप्यादिभी प्राचीना केकरे अवश्य होने चाहिये और वेदों उपर जो प्राचीन भाष्यादि हैवेही वेदोको हिंसाक उपदेशके सिद्ध करते है. श्री ऋषभदेवके समयमें जे वेदथे वे जैनमतानुसारीथे उनका मानना ठीक था परंतु वेदके ना
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