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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ શ્રી જૈનધર્મ પ્રકાશ लिखतेहै कि पृथवीका फिरना वेदसें विरुद्ध है तोभी हम कथन करते है इस वास्ते जिसकों जो अच्छा लगे सो मानो इसमें हमारी कुछ हानि नही है. ४---इसका अर्थ नीचे मुजब समझ लेना परंतु संपूर्ण इसके अर्थ तो योग्य पुरुषको दिखलाए जाते है. यह गप्प नही है; गप्प तो सोहै जो स्व कपोलकल्पित अर्थाभास ग्न हिसक शासकों सच्चा कर दिखलाना है. हमनी नी भी कर पाएगायीक लि. खितानुसार करते है. "राजानोददतेसौख्यं" सावित्री भावितो राना विसृजो विघृणोविराट् सप्ताचिः सप्ततुरगः सप्तलोकनमस्कृतः १ इति श्री स्कंद पुराणे श्री सूर्य सहस्त्रनामांतभणि तत्वात् राजा श्री सूर्यःनोऽस्माकं सौख्यं ददतेददाति इदं श्री सूर्य देवता भक्तजनानां वचनं ॥ १ ॥ पुनःप्रकारांतरण श्री सूर्यदेवस्यैव वणनमाह || ___ "राजाआनोददतेअसौख्यं" ऋशब्दः पावके सूर्यधर्मे दा. नेधनेपुमान् आ अरौ अरओतानि अरंचारौ श्वशसि इति विश्वशंभु वचन प्रामाण्यात् आ सूर्यः श्री आदित्यदेवः अमानोनाः प्रतिषेधे इति वचनात् नोन असौख्यं न सौख्यं असौख्यं दुख मित्यर्थः तत् दद ते प्राणिना मितिशेषः सर्व दैव सर्वेषां सौख्यदानात् किं आराजाराजते दीप्यते विश्व व्यापि प्रभाभि रिति राजा इदमपि श्री सूर्य सेवका नामेव वचनं ॥ २ ॥ अथ पुनः प्रकारांतरेण श्री ब्रह्म विप्नुंशिवदेवानामा श्रित्यार्थमाह ॥ "राअजअअनाअददतईसौख्यं' रारमारमणीबाला इति विश्वशंभु वचनात् रातत्पर्यायत्वात्श्रीः तथा अनोब्रह्माकन इति श्री अमर. वचनात्अः श्रीलश्नः तथा अशिवेकेशवेवायौ ब्रह्मचंद्राग्निभानुष इ. For Private And Personal Use Only
SR No.533067
Book TitleJain Dharm Prakash 1890 Pustak 006 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1890
Total Pages20
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size2 MB
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