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આત્માનંદ પ્રકાશ इतने क्रोधपूर्वक मांगे इसमे क्या रहस्य है। तीसरे यदि में जीव देव श्रेष्ठी को था ।" तब जिनदत्त ने कहा "मैं यह देखना सेठानी सहित अपनी मर्जी से दे देता तो चाहता था कि आप अपनी प्रजाकी रक्षा भी इसने राज्य ले लेना था और चौथे मरी करते है या कि नहीं। यह मेरे मन में कौतुक पुत्री सौभाग्य लता अभी तक अविवाहित था । मेरे मन में यह भी कुविकल्प आया है और जिन दन इस के लिये योग्य वर है था कि यदि यह राजा मेरे माता पिता को अतः यद श्रेष्ठ होगा कि अपनी पुत्री का बांध कर गुज्ञे समर्पण करेगा तो मैं इसके विवाह जिनदत्त से कर दू और राज्य भी राज्य को समाप्त कर दूंगा, परन्तु आपने ऐसा दें दू। ' नहीं किया तथा आपने अपनी प्रजा की रक्षा ..
राजा ने जीब देव से भी विचार विमर्श की है । आप निश्चित रूपले सात्विक शिरा
किया और दोकों के कहने से जिनदत्त ने मणि है ।” दोनों राजा मिलकर अत्यन्त
विवाह के लिये अपनी स्वीकृति दे दी । प्रसन्न हुए।
महोत्सव पूर्वाक जिनदत्त और सौभाग्य मंजरी महाराजा जिनदत्तने दातकारों को बुलाया का विवाह हो गया। फिर धर्मघोष मुनि उस और इस प्रकार कहने लगा, “हे भद्रो । मेरे नगर में पधारे और उन्हों ने वहां पर धर्मोसे डरना मन । मैं न्यायप्रिय हू । गै' आप पदेश दिया जिस से प्रभावित होकर महाराज से कुछ नहीं कहुंगा। परन्तु मैं एक बात अरिमर्दन ने उन्हें विनती की, "हे भगवन् । कहना चाहता हू', जो कंचूक में जुए में हार संयमरूपी जहाज देकर मुझे संसार सागर गया था वह कहां है ! उन्होंने उसे जहां से तारो।" इसी प्रकार जीवदेव सेठ ने भी रखा था वहां से लाकर दे दिया । राजा ने कपने पुत्र जिनदत्त से दीक्षा के लिये संमति कचुक की कीमत दे दी । राजा अरिमर्दन मांगी । फलस्वरुप राजा सेठ और सेठानी ने जुआरियों को दंड देना चाहता था परन्तु दीक्षा ली और जिन दत्त ने बारह व्रत लिये। जिनदत्त का पिता कहने लगा “चे अतकार फिर राजा जिनदत्त ने वसन्तपुर में एक निरपराध हैं । में ने ही इन्हें जुए में फसा
मला बहुत सुन्दर मन्दिर का निर्माण किया ।
न ने की प्रेरणा दी थी।" फिर जिनदान ने भी
इसके अतिरिक्त शास्त्रग्रन्थों को लिखवा कर महाराज से उन्हें क्षमा करने के लिये कहा।
ज्ञान भण्डार का निर्माण किया, श्री संघ की फलस्वरूप हातकारों का क्षमा कर दिया गया। भनि की तथा सात क्षेत्रों में धन का व्यय
फिर अरिमर्दन राजा अपने मन में विचार किया । एक बार किसी विदेश से आए हुए करने लगा, जिनदत्त जैसा उत्कृष्ट भाग्यवान पुरुष में जिनदत्त राजा से कहा, "हे राजन ! पुरुष इस संसार में नहीं हैं। दृमरे मेरा श्री अरिमर्दन राज ऋषि और जीवदेव मुनि लडका भी नहीं है तथा मै वृद्ध हो गया स्वर्ग सिद्धार गये हैं ।'' यह सुनकर राजा
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