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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पेड-पौधे लहराते नजर आते थे । यतिवर्ग और स्थानकवासी संप्रदाय के मुनिजन संयोगवश राजाश्रय प्राप्त करने में सफल हो गए थे । अलबत्ता, इनमें से बहुतेरों ने अपनी विद्या के बल पर भूतकाल में जैन शासन और सघ की कई प्रकार की उत्कट सेवा की थी । किंतु अब ऐसे कार्यो में ओट आ गई थी । पुरानी प्रतिष्ठा और महानता के आधार पर खडे अधिकार और अह कार के खंभों को दीमक लग गई थी । शुद्ध चारित्र्य और शास्त्राध्ययन कभी का बंद पड़ गया था, इसकी पूरी जानकारी होते हुए भी एकमात्र पुरानी परंपरा के बल पर यतिवर्ग अपना महत्व और अस्तित्व टिकाने हेतु प्रयत्नशील थे । यतिवर्ग की टूढ मान्यता थी कि उनकी उपस्थिति में कोई सवेगी साधु व्याख्यान नहीं दे सकता. पूर्व अनुमति के बिना कोई साधु गाम में प्रवेश नहीं कर सकता मान्यता के बिना किसी भुनि का श्रावक - समाज स्वागत नहीं कर सकता और ना ही उनकी सम्मति के अतिरिक्त कोई साधु चातुर्मास कर सकता था । इस तरह वे अपने लोप होते अधिकार को बनाए रखनें के लिए आवश्यकतानुसार साम-दाम-द ड भेद का उपयोग करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते थे 1 श्री आत्मारामजी महाराज को भी उनके विरोध का सामना करना पड़ा था। किंतु जिन्होंने पंजाब में अपने मूल सप्रदाय के विरोध में विद्रोह का झंडा लहराया था, इस तरह का बाह्य विरोघ उनका भला क्या बिगाड़ सकता या ? निर्मयता, विनम्रता और कार्य कौशल्य उनके प्रचार-युद्ध के खास शस्त्र थे । शिथिलाचार के साम्राज्य को छिन्न-भिन्न करने में महाराज जी का महत्वपूर्ण साथ था । For Private And Personal Use Only
SR No.532026
Book TitleAtmanand Prakash Pustak 092 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkant K Shah
PublisherJain Atmanand Sabha Bhavnagar
Publication Year1994
Total Pages24
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Atmanand Prakash, & India
File Size3 MB
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