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महान ज्योतिर्घर श्रीमद् विजयान'द गरी महाराज का दिव्य जीवन
गुज. ले. श्री सुशील
हिन्दी अनु. र जन परमार यतिगण का मामर्थ्य श्री आत्मारामजी महाराज के समकालीन श्री वृद्धिचन्द्र जी के जीवन-वृत्तान्त में स्थान स्थान पर ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं कि “तत्कालीन जैन समाज का बहुत बड़ा हिस्सा यतिजन अथांत् शिथिलाचारियों के पंजे में कैद था और उनका अनन्य अनुरागी था । यतिजन मत्र-तत्र और अभिम त्रित डेरे-धागे के बल पर सामान्य लोगों के दिल को रिझाते थे। सभाज तथा सामान्य जनों के माना वे ही एकमेव रक्षक और घनी-धारी है, सुधर्भास्वामी की परम्परा के वास्तविक उत्तराधिकारी है, इस तथ्य का जनमन में गहरा उतार कर वे उनके पास से पूजा-द्रव्य वसूल करते थे।
इस तरह एक आर यतियों ने अपने परिवल का खाम्राज्य सर्वत्र फैला रखा था और दुसरी ओर स्थानकवासी साधु-समाज घडल्ले से अपना प्रचार कार्य कर रहा था । ऐसी स्थिति में शवेगी साधु-समाज की हालत पतली हो गई थी। उनके लिए ए. और कुआं था और दुसरी और खाइ। वह अकारण ही दोनों टा के बीच में बुरी तरह से पीस रहे थे। जो स्वयं की पहचान सवेगी-शुद्ध क्रियावान के रूप में देते थे, उनमें से भी कुछ मुनि सार्वजनिक रूप में नहीं, किंतु निजी तौर पर भत्र-तत्र, ज्योतिष, वैद्यक आदि का आश्रय ग्रहण कर, अपने शिथिलाचार पाखड का छिपाने का प्रयत्न करते अधात नहीं थे । सयभ के प्रशस्त मार्ग में स्थान-स्थान पर कंटक और कंटकाकीर्ण
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