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का आकलन-अनुभव करता... सुरों की अनोखी दुनिया में सुध-बुध खाकर उड़ान भरने लगता । यदि उसे अभ्यास अथवा तालीम की संज्ञा देना चाहो तो तालीम ही सही । फिर भी यह सनातन सत्य है कि इखके अतिरिक्त संगीत विषयक अधिक संस्कार अथवा शिक्षा मैंने कभी नहीं पाई।" आत्मारामजीने महाराज ने अधिक स्पष्टीकरण करते हुए कहा ।
उनके प्रस्तुत जीवन-प्रसग से हम भली भाँति समझ सकते हैं कि एक समर्थ समर्पित व्यक्तित्व और प्रतिभाशाली पुरूष अपने योग्य संस्कार की शामग्री कहाँ से - किस तरह प्राप्तकर स्वय को कला समृद्ध बना लेता है ।
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