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મુનિ શ્રી પુષ્યવિજયજી શ્રદ્ધાંજલિ-વિશેષાંક
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प्रज्ञापुरुष का विलय कभी-कभी किसी लोकोपकारी पुरुष का आकस्मिक देहविलय मन में प्रलयपीडाकी-सी सिहरन पैदा कर देता है। यों तो विलय देह का धर्म है, कोई भी उसे नकार नहीं सकता, किंतु जिन परिस्थितियो में उसकी उपस्थिति की अत्यन्त आवश्यकता अनुभव की जाती है, उन्हीं परिस्थितियों में उसका विलीन हो जाना, सचमुच बहुत बड़े खेद एवं चिंता का विषय बन जाता है । आगमप्रभाकर ज्ञानमूर्ति मुनि श्री पुण्यविजयजी म० का देहविलय कुछ ऐसी ही स्थिति में हुआ हैं।
यों तो उनका स्वास्थ्य काफी समय से अस्वस्थ ही चल रहा था, किंतु गत दिनों बम्बई में हुए प्रोस्टेट के आप्रेशन के पश्चात् स्वास्थ्यसुधार की आशा की जा रही थी, किंतु सहसा ही १४ जून की कालरात्रि में उनका भौतिक शरीर अभौतिक आत्मा से विलग हो गया। यह दुखद समाचार जिसने भी सुना, वह सहसा शोक और पीडा की गहराई में डूब गया, नियति के क्रूर प्रहार से जैसे सिहर उठा।
मुनि श्री पुण्यविजयजी ज्ञान की जीती-जागती दिव्य ज्योति थे। उनकी सुदीर्घ एकनिष्ठ श्रुताराधना को देखकर ऐसा लगता था- उन्होंने ज्ञान को ही भगवान माना हैं, ज्ञान ही उनके जीवन का आराध्य है, साध्य है, ज्ञान ही उनकी आराधना है, साधना है । श्रुताराधना में एकनिष्ठा से तन्मय हुआ ऐसा तपस्वी, साधक आज जैन समाज में तो दूसरा नहीं है, ऐसा कहा जा सकता है।
प्राचीन जैन वाङ्मय के पुनरुद्धार की उनकी विराट योजना थी। जैन आगम एवं अलब्धप्राय इतर वाङ्मय को नवीन शैली एवं शुद्ध संस्करण में प्रकाशित करने का भगीरथ कार्य उनके सुदृढ़ हाथों से सम्पन्न हो रहा था-विद्वद् जगत् इस महत्कार्य के प्रति अत्यन्त आशावान् था और उनके द्वारा संपादित एक-एक ग्रन्थ को बहुमूल्य रत्न की भाँति बटोर रहा था। आशा की जाती थी कि उनके निर्देशन में सम्पन्न होने वाला यह कार्य जैन साहित्य को इतिहास के नये दौर में पहुँचा देगा। किन्तु नियति का यह क्रूर व्यंग्य न सिर्फ उनके भक्तों के लिए, अपितु प्रत्येक ज्ञानपिपासु के लिए निराशा एवं वेदना या एक तीव्र दंश लेकर आया है। ... राष्ट्रसंत उपाध्याय श्री अमरमुनिजी म० के साथ उनके बहुत ही आत्मीय सम्बन्ध
थे। दोनों का एक बहुत पुराना संकल्प था-"आगम सम्पादन का कार्य दोनों एकसाथ मिलकर सम्पन्न करें ।"-इसी संकल्प को मूर्तरूप देने के लिए कविश्रीजी ने उनके संकेत पर ही पालनपुर (गुजरात) में एक चातुर्मास भी किया था, किन्तु 'श्रेयांसि बहु विघ्नानि' की उक्ति प्रायः अनचाहे भी सच हो जाती है । संकल्प को मूर्त रूप नहीं दिया जा सका । आगमप्रभाकरजी को दुर्निवार परिस्थिति के कारण अहमदाबाद जाना पड़ा और कविश्रीजी को पालनपुर में रुक जाना पड़ा । पश्चात् अहमदाबाद से आगमप्रभाकरजी ने एक शिष्टमंडल भेजा था अहमदाबाद का निमन्त्रण देने, किन्तु कविश्रीजी श्रमण संघ के
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