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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજી શ્રદ્ધાંજલિ-વિશેષાંક श्रुतसाधक मुनि पुण्यविजयजी श्री ऋषभदासजी रांका ___ पिछली बार भडौच में मित्रवर स्व. परमानन्दभाई के निधन के दुःखद समाचार मिले; फिर वहीं दूसरे प्रवास में आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी के स्वर्गवास के दुःखदायी समाचार पढने को मिले । मुनि पुण्यविजयजी जैन समाज के ही नहीं भारतीय साहित्य के भी उज्ज्वल तारे थे, जिनकी कीर्ति देश ही नहीं पर विदेशों में भी थी; जिन्होंने साठ साल से भी अधिक काल सतत प्राचीन शास्त्रों के अध्ययन, संशोधन और सम्पादन में लगाया । जब जब मिलना होता चारों तरफ फैले हुए ग्रंथों के बीच अध्ययन करते ही पाया । सौम्य किन्तु प्रसन्न मुखमुद्रा, वाणी ऐसी लगती मानो सरस्वती ही बोल रही है। लगन और निष्ठापूर्वक ज्ञानार्जन किए इस ऋषि के बोलने में कहीं आग्रह या अहंकार छू तक नहीं जाता । वे सत्य के शोधक थे। उनमें किसी प्रकार का पक्षपात नहीं था, पर जहां भी जो सत्य होता उसके शोधन के लिए तत्पर रहते थे । संप्रदाय का अभिनिवेश न होने के कारण ही अपने शास्त्र-शोधन के कार्य में अन्य संप्रदाय के विद्वानों का सहयोग लेते । इतना ही नहीं, वे उनका उचित मूल्यांकन भी करते । अभी अभी पन्नवणा सूत्र के प्रकाशन का समारोह हुआ था, जिसका प्रकाशन दिगम्बर जैन विद्वान् डा. हीरालालजी जेन से कराया था । ऐसी उदारता बहुत कम देखने को मिलती है। वे जैसे व्यापक दृष्टिकोणवाले विद्वान् थे वैसे ही उनका विनय भी उच्च कोटि का था। उन्होंने दीर्घ काल तक साहित्य की उपासना की, किन्तु उसमें दिखावे या आत्मप्रतिष्ठा को जरा भी स्थान नहीं दिया । आज के इस विज्ञापन और दिखावे के युग में ऐसा निरभिमानी देखने को नहीं मिलता। जहां सत्ता या बडप्पन की होड या प्रतिस्पर्धा दिखाई देती हैं, श्वेताम्बर समाज में जहाँ आचार्य बनने की होड लगी रहती है, वहाँ बारबार आग्रह करने पर भी वे आचार्य पद न लेकर अपने कार्य में लगे रहे । उन्हें संघ और आचार्य श्री विजयसमुद्रसूरिजी की ओर से जो अभी अभी सम्मान दिया जानेवाला था वह उन्होंने नहीं लिया। ऐसे वे निःस्पृह सन्त, साधक और शोधक थे। वे निरन्तर साहित्य-साधना में लगे रहते थे। इतना श्रम करते कि उनके परिश्रम को देखकर युवाओं को भी शरमाना पडे । इतने सरल और गुणग्राहक थे कि कभी उनके मुंह से किसी के प्रति अनादर की बात भी नहीं सुनी गई तो निन्दा की तो बात दूर ही रही । वे मानों विनय और सौजन्य की मूर्ति हो। मुनि श्री पुण्यविजयजी का जन्म कपडवंज ग्राम में वि. स. १९५२ की ज्ञानपंचमी को हुआ था। बचपन का नाम मणीलाल था। पिता सेठ श्री डाह्याभाई की छत्रछाया वाल्यकाल में ही, जब वे गुजराती पाठशाला की छठी श्रेणी में पढते थे, उठ गई । माता माणिक बहन धार्मिक वृत्ति की महिला थी। उनके संस्कारों के कारण ही आचार्य श्री विजयवल्लभसूरि के समुदाय में बडोदा के निकट छाणी ग्राम में कुल १३ वर्षकी अल्प वय में वि. सं. १९६५ में जैन दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के बाद इस छोटी उम्र में ही व्याकरण, साहित्य, संस्कृत, प्राकृत आदि का गहन अध्ययन प्रारम्भ किया। प्रवर्तक मुनि कांतिविजयजी के शिष्य मुनि श्री चतुरविजयजी से आप दीक्षित हुए थे, जहाँ प्राचीन ग्रन्थो के संपादन एवं संशोधन की परम्परा चली आ रही थी। For Private And Personal Use Only
SR No.531809
Book TitleAtmanand Prakash Pustak 071 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Atmanand Sabha Bhavnagar
PublisherJain Atmanand Sabha Bhavnagar
Publication Year1973
Total Pages249
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Atmanand Prakash, & India
File Size94 MB
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