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________________ सेवा : साधना का सर्वोच्च शिखर आचार्य चन्दना अनुकम्पा वह पावन गंगा है जो कठोर चट्टानों को तोड़कर बह जाती है और सबको जीवन, त्राण देती हुई सूखे मृतप्राय निराश जीवन में प्राण फूंकती है। अनुकम्पामय भावों की तरलता में ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। साधना का सूत्रपात यहीं से होता है। जीवन का यही वह उत्स है जिसने व्यक्ति को जीवन से जोड़ा है एवं जिसने परिवार की रचना की है। परिवारों से समाज बना है, समाज से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व। सबको परस्पर गूंथ दिया गया है। व्यक्ति की समष्टि से एकात्मभूत प्रतीति, अनुभूति ही अनुकम्पा है। व्यक्ति समष्टि में विलीन होकर ही विराट होता है। बूँद समुन्दर में खोकर समुद्रवत हो जाती है। सागर क्या है? बूंद-बूंद का संग्रह। जब सागर में समाहित हो जाती है बूंद तब वह बूंद बूंद नहीं रहती है। एक-एक बूँद सागर हो जाती है। एकत्व का विराट बोध, सागर है। अन्तर्बोध अनुकम्पा ही जगाती है अन्तर्बोध - जैसे मेरा अस्तित्व है, वैसे सबका अस्तित्व है। जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे सबको सुख प्रिय है। जैसे मुझे अपना जीवन प्रिय है, वैसे सबको अपना जीवन प्रिय है। अतः मुझे सबके साथ वही व्यवहार करना चाहिए जो मैं अपने प्रति चाहता हूँ। अगर कोई पीड़ित है, दुःखी है, असहाय अवस्था में है तो उसको सुख देने के लिए मुझे प्रयास करना चाहिए। कोई विपदाग्रस्त है, तो उसकी विपदा दूर करने का प्रयास मुझे करना चाहिए। यह जागृत अन्तर्बाध बोधिबीज है जो जिनत्व का विराट कल्पवृक्ष बनता है। सम्यक्त्व का उद्भूत स्वरूप है, जिसकी पूर्णता सिद्धावस्था है, मुक्तावस्था है। उक्त बोधि की पूर्णता ही बुद्धत्व है। तीर्थकरों की धर्मदेशना यही तो है । महान् भाष्यकार जिनदास ने कहा है -
SR No.528692
Book TitleJain Center of America NY 2005 06 Pratishtha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Center of America NY
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2005
Total Pages190
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, USA_Souvenir Jain Center NY New York, & USA
File Size14 MB
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