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________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 आचार्य महाराज ने तो अनुकम्पा के तीन भेद किये हैं जो इस प्रकार हैंधर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा और सर्वानुकम्पा।” अब इन तीनों के स्वरूप को संक्षेप से आचार्य व्यक्त करते हैं१. धर्मानुकम्पा- जिनके असंयम का त्याग है, मान-अपमान आदि अवस्थाओं में समान हैं, जो वैराग्य से युक्त होते हैं, क्षमादि दसों धर्मों में तत्पर रहते हैं, ऐसे निर्ग्रन्थ संयमी मुनियों के ऊपर दया करना धर्मानुकम्पा कहलाती है। यह अन्त:करण में जब उत्पन्न होती है तब विवेकी गृहस्थजन यति-मुनियों को आहारादि दान देता है, उनके ऊपर आये हुए उपसर्ग, परीषहों को बिना शक्ति छिपाये दूर करता है और उनका संयोग पाकर अपने आप को धन्य मानता है और उनके मार्ग का अनुकरण करने का पूर्ण प्रयास करता है वही धर्मानुकम्पा कहलाती है। २. मिश्रानुकम्पा- जो हिंसादिक पापों से विरत होकर अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रतों का अच्छी प्रकार से पालन करता है, पापों में भीरुता, संतोष और वैराग्य में तत्पर रहकर सामायिक-उपवासादि को करते हुए वैराग्य मार्ग में आगे बढ़ने के प्रयास में सदैव तत्पर रहते हैं ऐसे संयतासंयत अर्थात् श्रावकों पर जो दया की जाती है उसको मिश्रानुकम्पा कहते हैं। जो जीवों पर दया करते हैं परन्तु दया का पूर्ण स्वरूप नहीं जानते हैं, जो जिनसूत्रों को नहीं जानते, अन्य पाखण्डी गुरु की उपासना करते हैं, पञ्चाग्नि आदि तप तपते हैं, ऐसे जीवों के ऊपर कृपा करना भी मिश्रानुकम्पा है। गृहस्थ धर्म और अन्य धर्म, दोनों के ऊपर दया करने को मिश्रानुकम्पा कहते हैं। ३. सर्वानुकम्पा- सम्यग्दृष्टिजन और मिथ्यादृष्टिजन दोनों भी स्वभाव से मृदुता को धारण करते हुए जो संसार के समस्त प्राणियों के ऊपर दया करते हैं तो उसको सर्वानुकम्पा कहते हैं। क्षत-विक्षत, जख्मी, अपराधी, निरपराधी और एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों का परस्पर में घात-विघात करने से जो दृश्य देखकर दया उत्पन्न होती है उसे सर्वानुकम्पा कहते हैं। आस्तिक्य- सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर समीचीन रूप से श्रद्धा करना ही आस्तित्य है। आचार्य इसका स्वरूप व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि सर्वज्ञ वीतरागी आप्त देव के द्वारा कहे गये जीवादिक तत्त्वों में रुचि होने को आस्तिक्य कहते हैं। पञ्चाध्यायी के प्रणेता पं. जी भी अपना आशय व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि- नव पदार्थों के सद्भाव में, धर्म में, धर्म के हेतु में और धर्म के फल में निश्चय रखना ही आस्तिक्य गुण कहलाता
SR No.527331
Book TitleAnekant 2016 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size230 KB
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