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________________ 90 अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 संवेग- संसार के दुःखों से भयभीत होना तथा धर्म में अनुराग होना संवेग कहलाता है। इसी परिभाषा का और परिष्कार करके आचार्य ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं कि धर्म में, धर्म के फल में और दर्शन में जो हर्ष होता है, वह संवेग कहलाता है। धवलाकार कहते हैं कि हर्ष और सात्त्विक भाव का नाम संवेग है। लब्धि में संवेग की सम्पन्नता का अर्थ सम्प्राप्ति है। पं. राजमल जी अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि- धर्म में और धर्म के फल में आत्मा का जो परम उत्साह होता है वह संवेग कहलाता है, अथवा धार्मिक पुरुषों में अनुराग अथवा पञ्चपरमेष्ठी में प्रीति रखने को संवेग कहते हैं। यह संवेग तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध कराने वाली 16 भावनाओं में से भी एक है। आचार्य कहते हैं कि- दर्शन विशुद्धि के साथ यदि एक संवेग भाव ही रहे तो उससे भी तीर्थकर प्रकति का बन्ध हो जाता है। अनुकम्पा- अनुकम्पा दया का ही दूसरा नाम है। कोई भी धर्महीन अथवा दुःखित व्यक्ति की समस्या का उचित तरीके से समाधान अथवा सहायता करना ही अनुकम्पा है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी अनुकम्पा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि- प्यासे को या भूखे को या दुःखित किसी भी प्राणी को देखकर जो स्पष्टतः दुःखित मन होकर दया परिणाम के द्वारा उनकी सेवादि को स्वीकार करता है, उस पुरुष के प्रत्यक्षीभूत शुभोपयोगरूप यह दया अथवा अनुकम्पा कहलाती है।4 अनुकम्पा के स्वरूप को और अधिक गहराई से व्यक्त करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि अनुग्रह से दयार्द्र चित्त वाले के दूसरे की पीड़ा को अपनी ही मानने का जो भाव होता है, उसे अनुकम्पा कहते हैं। पं. राजमल्ल जी ने सभी संसार के प्राणियों पर अनुग्रह, मैत्रीभाव, माध्यस्थ भाव और शल्यरहित वृत्ति को अनुकम्पा माना है। आचार्यों का अनुकम्पा के अर्थ से तात्पर्य समझ में यह आता है कि किसी भी प्रकार से की गई कृपा अथवा दया अनुकम्पा है जो उस प्रकार के दुःख से दुःखित है। आचार्यों ने तो माध्यस्थभाव को भी अनुकम्पा में ग्रहण कर लिया है। सभी आचार्य अनुकम्पा को एक अपेक्षा से वात्सल्य का ही एक रूप कहना चाहते हैं। जिस प्रकार वात्सल्य में किसी भी प्रकार की स्वार्थबुद्धि से विलग होकर बस कृपापात्र प्राणी पर दया करता ही है उसी को ही आचार्य अनुकम्पा स्वीकार कर रहे हैं। भगवती आराधना में
SR No.527331
Book TitleAnekant 2016 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size230 KB
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