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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016
युगवीर गुणाख्यान
वीतराग की पूजा क्यों ?
वीर सेवा मन्दिर के संस्थापक वाङ्मयाचार्य पं. जुगलकिशोर मुख्तार' का यह निबन्ध 'वीतराग की पूजा क्यों?' लगभग 62 वर्ष पूर्व समन्तभद्र-विचार-दीपिका' के प्रथम भाग में प्रकाशित हुआ था। निबन्ध को आज के समय अत्यन्त आवश्यक मानकर अविकल रूप से प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है, इसे पढ़कर श्रावक/श्राविकायें वीतराग भगवान् की पूजा का प्रयोजन समझ सकेंगे।
- संपादक
जिसकी पूजा की जाती है वह यदि उस पूजा से प्रसन्न होता है, और प्रसन्नता के फलस्वरूप पूजा करने वाले का कोई काम बना देता अथवा सुधार देता है तो लोक में उसकी पूजा सार्थक समझी जाती है। और पूजा से किसी का प्रसन्न होना भी तभी कहा जा सकता है जब या तो वह उसके बिना अप्रसन्न रहता हो, या उससे उसकी प्रसन्नता में कुछ वृद्धि होती हो अथवा उससे उसको कोई दूसरे प्रकार का लाभ पहुँचता हो; परन्तु वीतरागदेव के विषय में यह सब कुछ भी नहीं कहा जा सकतावे न किसी पर प्रसन्न होते हैं, न अप्रसन्न और न किसी प्रकार की कोई इच्छा ही रखते हैं, जिसकी पूर्ति-अपूर्ति पर उनकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता निर्भर हो। वे सदा ही पूर्ण प्रसन्न रहते हैं- उनकी प्रसन्नता में किसी भी कारण से कोई कमी या वृद्धि नहीं हो सकती। और जब पूजा-अपूजा से वीतरागदेव की प्रसन्नता या अप्रसन्नता का कोई सम्बन्ध नहीं- वह उसके द्वारा संभाव्य ही नहीं- तब यह तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि पूजा कैसे की जाय, कब की जाय, किन द्रव्यों से की जाय, किन मन्त्रों से की जाय
और उसे कौन करे- कौन न करे? और न यह शंका ही की जा सकती है कि अविधि से पूजा रकने पर कोई अनिष्ट घटित हो जाएगा, अथवा