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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 से युक्त होकर स्वयं सुखरूप बन्धन को प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ- जैसे अग्नि से सन्तप्त घी से सिक्त जला हुआ पुरुष जलन से दु:ख को प्राप्त करता है इसलिए शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है।
छठे से बारहवें गुणस्थान तक के मुनि को अभेददृष्टि से चारित्र परिणत आत्मा कहते हैं। उसी को भेद-दृष्टि के सातवें से बारहवें तक शुद्धापयोगी या वीतराग चारित्र का धारी कहते हैं जिसका फल साक्षात् मोक्ष है और छठे में शुभोपयोगी या सराग चारित्र वाला कहते हैं जिसका फल (परम्परा मोक्ष होने पर भी) साक्षात् पुण्यबंध रूप स्वर्ग है। इस सम्बन्ध में कथञ्चित् शब्द ध्यातव्य है। शुद्धोपयोग परिणत आत्मस्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है
सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणियो सुद्धोवओगो त्ति॥
प्रवचनसार 1/14 इस गाथा में पांच विशेषणों से युक्त श्रमण शुद्धोपयोगी कहा जाता है वे इस प्रकार है1. सूत्रों के अर्थ के ज्ञान के बल से स्व द्रव्य और पर द्रव्य के विभाग के परिज्ञान में, श्रद्धान और विधान में समर्थ होने के कारण से भलीभांति जान लिया है पदार्थों को जिसने। 2. समस्त छह जीव निकाय के हनन के विकल्प से और पंचेन्द्रिय (सम्बन्धी) अभिलाषा के विकल्प से (आत्मा) को व्याकृत करके आत्मा के शुद्ध-स्वरूप संयम करने से संयम-युक्त हैं। 3. स्वरूप विभ्रान्त निस्तरंग चैतन्य प्रतपन होने से जो तपयुक्त है। 4. सकल मोहनीय के विपाक से भेद की भावना की उत्कृष्टता से निर्विकार आत्मस्वरूप को प्रगट किया होने से जो वीतरागी है। 5. परम कला के अवलोकन के कारण (आत्मा में लीनता के कारण) साता वेदनीय और असातावेदनीय के विपाक से उत्पन्न होने वाले जो सुख दु:ख - उन सुख-दुःख जनित परिणामों के विषमता का अनुभव नहीं होने से जो समसुख-दुःख है। यह शुद्धोपयोग मुख्यतया बारहवें गुणस्थान में परिणत मुनि के होता है परन्तु गौणतया सातवें से बारहवें गुणस्थान तक