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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016
आचार्य पूज्यपाद आत्मा के भेदों को निरूपित करते हुए कहते हैंबहिरन्तः परश्चेति त्रिधाऽऽत्मा सर्वदेहिषु। उपेयात्तत्र परमं मध्मोपायाबहिस्त्यजेत्॥ समाधिशतक 4
सर्व प्राणियों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इस तरह तीन प्रकार की आत्मा है। उनमें से बहिरात्मपने को छोड़ना चाहिए और अन्तरात्मा रूप उपाय से परमात्मपने का साधन करना चाहिए।
जीवों में जो मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थान बताये हैं उनमें पहले तीन गुणस्थान तक के जीव तो बहिरात्मा है अर्थात् मिथ्यात्व सासादन, मिश्र, गुणस्थानवर्ती जीव बहिरात्मा है। अविरत सम्यग्दृष्टि नाम के चौथे गुणस्थान से लगाकर क्षीणमोह नाम के बारहवें गुणस्थान तक के जीव अन्तरात्मा हैं। उनमें चौथे गुणस्थान वाले जघन्य, पांचवें व छठे गुणस्थान वाले मध्यम तथा ध्यान में लीन सातवें से बारहवें गुणस्थान वाले जीव उत्तम अन्तरात्मा है। तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान वाले जीव शरीर सहित परमात्मा हैं तथा सिद्ध शरीर रहित परमात्मा है।
आत्मा का शुद्ध स्वभाव अर्थात् परमात्म अवस्था ही उपादेय है तथा उसकी प्राप्ति के लिए जो अन्तरात्म अवस्था है, वह भी साधन रूप में उपादेय है। अतएव भव्य जीव को मिथ्याबुद्धि छोड़कर यथार्थ बात को जानकर अपनी निर्मल शक्ति का ध्यान करना चाहिए।
जैन सिद्धान्त में तीन प्रकार के उपयोग कहे गये हैं। वे हैं शुद्धोपयोग, शुभोपयोग और अशुभोपयोग। प्रवचनसार में लिखा है
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वासुहं सहोवजुत्तो व सग्गसुहं॥ 1/11
जब यह आत्मा धर्म-परिणत स्वभाव वाला होकर शुद्धोपयोग रूप परिणति को धारण करता है तब विरोधी शक्ति (राग भाव) से रहित होने के कारण अपना कार्य करने में समर्थ चारित्र वाला हुआ साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करता है किन्तु जब वही आत्मा धर्मपरिणत स्वभाव वाला होता हुआ भी शुभोपयोग रूप परिणति से युक्त होता है- सराग चारित्र को धारण करता है- तब विरोधी शक्ति (राग भाव) से सहित होने के कारण अपना कार्य करने में असमर्थ व कथंचित् विरुद्ध कार्य करने वाले चारित्र