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________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चेव।। लुह चउगह चइऊणं जइ इच्छत सासयं सुक्खं॥ भावपाहुड 60 हे मुनिवर ! यदि तुम चारों गतियों को छोड़कर अविनाशी सुख की इच्छा करते हो तो शुद्ध भावपूर्वक अत्यन्त विशुद्ध और निर्मल आत्मा का ध्यान करो। आत्मा भावना का भावयिता सतत आत्मा में वास करता है, वह आध्यात्मिक वैभव से सम्पन्न है, रत्नत्रयमय है। वीतरागता को धारण करने वाला ज्ञानी भव्यात्मा है। आत्मधर्म को स्वीकार करने वाला है। स्वाश्रित धर्म की उपादेय है, आगम इसे ही मान्यता देता है। देहाश्रित, क्षेत्राश्रित आदि अवस्थाओं को आत्मधर्म से भिन्न माना गया है। आचार्य पूज्यपाद कहते हैं त्यक्त्वैवं बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः। भावयेत्परमात्मानं सर्व संकल्पवर्जितम्॥ समाधिशतक 27 आचार्यदेव मुमुक्षु जीव को सम्बोधित करते हैं कि संकल्प-विकल्प की लहरें जब तक चित्त को विद्यमान रहेंगी, तब तक नाना भाव बनते रहेंगे, उस क्षण परमात्मा का ध्यान नहीं हो सकता। आत्म साधक को समस्त द्वन्द्वों से परे होकर स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। जब तक निज स्वरूप का ध्यान नहीं होता, तब तक पञ्चपरमेष्ठी का सतत चित्त में ध्यान करना चाहिए क्योंकि इससे अंत:करण की विशुद्धि होती है साधना की रक्षा हेतु सर्वप्रथम प्रारब्ध साधक के लिए चित्त पर नियन्त्रण करना अनिवार्य है। जो मात्र शरीर को निमंत्रित करता है। परन्तु मन पर कोई नियंत्रण नहीं रखता, वह अल्प समय का ही साधक है। __ ज्ञान वैराग्य के द्वारा मन को स्थिर करना चाहिए। चित्त/मन के विषय को बदल देना चाहिए। जो मन अशुभ विषयों में प्रवृत्त है, उसे शुभ की ओर लगाना चाहिए। यह ध्रुव सत्य है कि मन स्थिर हुए बिना कर्मातीत अवस्था नहीं हो सकती। तत्त्वसार में लिखा है समणे णियच्चलमूए णठे सव्वे वियप्पसंदोहे। थक्को सुद्धसहावो अवियप्पो णिच्चलो णिच्चो॥ 1/7
SR No.527331
Book TitleAnekant 2016 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size230 KB
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