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________________ 22 अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 जैन परम्परा पोषित, भाव विशुद्धि की प्रक्रिया और ध्यान - प्रो. अशोककुमार जैन भारतीय संस्कृति में जैनधर्म प्राचीनतम धर्म है। इसमें अध्यात्म की प्रधानता है। जब संसारी जीव मिथ्यात्व का त्याग कर देता है तथा शरीरादि परद्रव्यों से विमुख होकर आत्मोन्मुख होता है तो उसके परिणामों में विशुद्धता वृद्धिंगत होती है । आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में लिखा हैपरिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो । प्रव.सार 1/8 द्रव्य जिस समय में जिस भावरूप से परिणमन करता है उस समय उस रूप है, इसलिए धर्म परिणत आत्मा को धर्म जानना चाहिए। जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ॥ प्रवसार 1/9 जीव जब शुभ भाव से परिणमन करता है तब स्वयं शुभ होता है वही जब जब अशुभ भाव से परिणमन करता है तब स्वयं ही अशुभ होता है और जब वही शुद्ध भाव से परिणमन करता है तब स्वयं शुद्ध होता है क्योंकि वह परिणमन स्वभाव वाला है। भावपाहुड में वर्णन है - भावो य पढमलिंगं ण दव्वलिंग च जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विंति ॥ गाथा 2 भाव ही प्रथम लिङ्ग है, द्रव्य - लिङ्ग, परमार्थ नहीं है अथवा भाव के बिना द्रव्यलिङ्ग परमार्थ की सिद्धि करने वाला नहीं। गुण और दोषों का कारण भाव ही है ऐसा जिनेन्द्र भगवान जानते हैं। भावविसुद्धिणिमित्तं वाहिरगंथस्स कीरए चाओ। वाहिरचाओ विहलो अब्भगंथस्स जुत्तस्स ॥ भावपाहुड 3 भावों की विशुद्धि ने लिए परिग्रह का त्याग किया जाता है। जो अंतरंग परिग्रह से सहित है उसका बाह्य त्याग निष्फल है।
SR No.527331
Book TitleAnekant 2016 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size230 KB
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