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________________ करण ३] आत्मा, चेतना या जीवन [१४५ ही कर सकते हैं। आत्माको केवल आत्मा-द्वारा ही की एकाग्रता जिस विषयकी भी हो उस विषयमें क्षमताको अनुभूत किया जा सकता है। प्रारम्भमें मनकी एकाग्रता बढ़ाती है। यदि ध्यानका विषय शुद्ध पारमा ही स्वयं इसमें सहायक होती है। मनको प्रात्माके शुद्ध निर्मल हो तब तो पूछना ही क्या । ध्वानके तरीकोंका और स्वरूपके ध्यानमें लगानेसे साधना और ध्यानकी शुद्धताके अभ्यास बढ़ानेके ढंगोंका विशद-वर्णन जैन शास्त्रोसे प्राक्ष अनुसार धीरे धीरे ध्यान स्वयं अधिकाधिक गंभीर होगा। जैसा हम ध्यान करेंगे वैसा ही हम हो जायंगेऔर शुद्ध होता जाता है। शास्त्रोंके मननसे ज्ञानकी यह बिलकल सही बात है । तीर्थकर भगवानकी शुद्ध वृद्धि और शुद्धि होती है। इन दोनोंकी मददसे स्वयं ध्यानस्थ-मूर्तिका दर्शन और ध्यान करनेसे हमारे अन्दर तर्क और बुद्धिका उपयोग करके प्रारमाके शरीरस्थित भी वैसी ही भावनाएं उत्पन्न और सुदृढ होती हैं। भयंकर स्वरूपकी धारणा और उसके गुणोंका विशुद्ध ज्ञान मतियोंके या रूपोंके दर्शन और ध्यानसे हमारी भावनाएं प्राप्त होता है। यही ज्ञान और धारणा सुदृढ हो भी तदनरूप ही हो जाती हैं । शुद्ध, प्रकाशमय जाने पर ध्यानकी गहराई स्वयं आरमाको पात्मामें शारमाका ध्यान हमें उत्तरोत्तर उन्नत और शद्ध बनाता लीन करने लगती है और तब कभी न कभी स्वयं प्रात्माकी ऊवं गति इसी प्रकार संभव है। पारमप्रकाश उदय हो जाता है। यही वह अवस्था है जहाँ पूर्णज्ञानकी उपलब्धि हांकर प्रारमा निराबाध, निर्विकल्प संसारमें भी हम पाते हैं कि जो आत्मामें विश्वास निद्वन्द, निर्बन्ध हो जाता है और तब पुद्गलसे छूटकर करते हैं वे अधिक गंभीर और आचरणके पक्के होते हैं। अपनी परमशुद्ध पूर्णज्ञानमय अवस्थामें स्थिर हो जाता जो श्राम्मामें विश्वास नहीं करते वे जल्दी ही विभिन्न है। इसे ही मोक्ष कहते हैं। व्यसनोंके शिकार होकर अन्तमें अपना सब कुछ गंवा कर निराश और दुःखी ही होते हैं। जब कि श्रात्मामें विश्वास मोक्ष ज्ञानकी वृद्धि द्वारा ही संभव है। ज्ञान भी शुद्ध, करने वाला दुखमें भी धीर गंभीर रहता है और ठीक, सही ज्ञान होना चाहिए । गलत ज्ञानकी वृद्धिसे उसका दुख भी सुखमें परिणत होजाता है। आस्मामें मोक्ष नहीं हो सकता है उलटा जद-पुद्गल (Matter) विश्वास करनेसे मनुष्यको अपने जीवनके स्थायित्व में का सम्बन्ध या बन्धन और अधिक कड़ा होगा। आत्मा विश्वास होता है। वह इस जन्ममें जो कुछ करता है को पुद्गलसे सर्वथा भिन्न समझना और ज्ञान चेतनामय उसका अच्छा फल उसे अगले जन्ममें अच्छे वातावरण शुद्ध देखना ही सच्चा ज्ञान है । प्रात्माके गुण अलग हैं और परिस्थितियों में ले जाता और रखता है या पैंदा और पुद्गलके गुण अलग । दोनोंका जब तक संयोग करता हैं। रहता है दोनोंके गुणोंके सम्मिलनके फलस्वरूप हम जीवधारियों में विभिन्न गुणोंको पाते हैं। शरीरका हलन चलन आत्मामें तो अनंतगुण, शक्ति और श्रानन्द हैं। इनका विकाश करनेके लिए शुद्ध-ज्ञान-पूर्वक, ध्यान, पुद्गलका गुण है और चेतना श्रास्माके कारण है। चेतना ही चेतनाके विकाशका कारण, आधार और जरिया है। अभ्यास, अध्यवसाय और चेष्टाका सतत होना आवश्यक हैं। ऐसे दृढ लगन युक्त पान दारा भी यदि सफलता जड तो चेतनाको कम ही करने वाला है। जितना जितना • न मिले तो उसमें कहीं दोष या कभोका होमा ही कारण चेतना (ज्ञान) का विकाश होता जाता है उसे ही सांसारिक हो सकता है। दोष या कमीको ईद कर उसे दूर करना 'भाषामें आत्मविकाश कहते हैं। आत्मविकाशके लिये चाहिए। बार बार लगातार कोशिश और अभ्यास करनेअच्छा स्वस्थ शरीर उपयुक्त वातावरण में जन्म, समुचित से ही कुछ उचित फलकी उपलब्धि हो सकती हैं। परिस्थितियोंका होना और आवश्यक शिक्षा संस्कृति शारीरिक अवस्थामें या गार्हस्थ्यमें मन ही ध्यानका जरूरी है। ध्यानके लिए भी इनकी जरूरत है । ज्ञान शुद्ध प्राधार हैं। मन बड़ा ही चंचल है। इसका स्थिर होना होने से ही ध्येय भी शुद्ध हो सकता है। ध्येय जब तक शुद्ध न हो तो ध्यान भी बेकार ही है। ७ देखो, मेरा लेख "शरीर का रूप और कर्म, जो ... साधारण गृहस्थ मानव भी शुद्ध आत्माका ध्यान अखिल विश्व जैन मिशनसे ट्रेक्टरूपमें अमूल्य प्राप्त करके अपने गुणों और समताओंको बढ़ा सकता है । ध्यान हो सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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