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________________ १४२] अनेकान्त , [किरण ४ आकिंचन्य आत्माका धर्म है, गुण है, उसकी सबसे ' समतारससे सराबोर उस मुनिमुद्राको धारण करना बड़ी महत्ता दुःखका अभाव है। दुःखसे छूटनेके लिये हमें आवश्यक है जिसमें प्राशा, तृष्णाको कोई स्थान ही उस आकिंचन्य धर्मकी शरणमें जाना पड़ता है । विना नहीं है । किसी कविने ठीक कहा हैउसकी शरण लिये वास्तविक सुख मिलना नितान्त कठिन् भाले न समता-सुख कभी नर, विना मुनिमुद्रा धरे। है क्योंकि जिस तरह शरीरमें जरासी फांस लग जाती है धन नगन पर तन नगन ठाड़े, सुर असुर पायनि परे। - तो वह बड़ा दुःख देती है, मनुष्य उससे बेचैन हो जाता अतः हमारा कर्तव्य है कि हम वस्तुतत्त्वका यथार्थ है। उसी तरह धन, सम्पदा, महल, और विविध भोगोंके स्वरूप सम्मनेका प्रयत्न करें और अपने प्रात्मकर्तब्यको संग्रहकी बात जाने दीजिये यदि एक लंगोटीकी चाह है, न भले. सजग और विवेकी बने रहें. घरमें रहते हुए घरजब तक वह नहीं मिल जाती है तब तक तद्विषयक के कामसे उन्मुक्त रहनेका यत्न करें, सांसारिक भोगोंकी आकुलता बनी ही रहती है। उसकी चाहमें वह मानव अभिलाषाको कम करें । और इस लालसाका भी परित्याग • अनन्त दुःखोंका पात्र होता है । तत्त्वदृष्टिसे विचार किया चार किया करें कि बहुत धन संचय करके हम उसे परोपकारमें लगा जाय तो लंगोटी कोई महत्वपूर्ण पदार्थ नहीं है और न देंगे। ऐसा करनेसे प्रास्मा अपने कर्त्तव्यसे च्युत हो जाता वह किसीको दुख ही करती है। वह सुखःदुखकी जनक है और उससे वह अपने तथा परके उपकारसे भी वंचित भी नहीं है। किन्तु उस लंगोटीमें जो ममता है, राग है, रह जाता है। क्योंकि लोभसे लोभकी वृद्धि होती है। बह राग ही जीवको बेचैन कर रहा है दुखी और संसारी अन्ततोगत्वा प्रात्मा अपार तृष्णाकी कीचड़में फंस जाता बनाये हुए है। अतः उससे छूटनेके लिये उस लंगोटीसे है। दूसरे, धनसंचयसे अपना और दूसरेका उपकार हो भी मोह छोड़ना पड़ता है, बिना लंगोटीसे मोह छोड़े ही नहीं सकता। उपकार अपकार तो अपनी भावना और वास्तविक नग्नता नहीं पा सकती। लंगोटी छोड़ कर कर्तन्यसे हो सकता है। अतः पहले सदुद्दष्टि बन कर एक साधु बन जाने पर भी यदि उससे ममता नहीं छूटती है देश पाकिंचन्य धर्मका अधिकारी बनना चाहिये। और तो बह नग्नता भी अर्थसाधक नहीं हो सकती। अतः घरमें रहते हुए तृष्णाको घटाने तथा देह-भोगोंसे अरुचि लंगोटीसे भी ममता छोड़ना अत्यन्त आवश्यक है और बढ़ानेका यत्न करना ही श्रेयस्कर है। ब्रह्मचर्य पर श्रीकानजी स्वामीके कुछ विचार "ब्रह्मका अर्थ है आत्माका स्वभाव; उसमें विचरना, बुद्धि है उसके वास्तवमें विषयोंकी रुचि दूर नहीं हुई। परिणमन करना, लीन होना सो ब्रह्मचर्य है । विकार और शुभ अथवा अशुभ विकार परिणामों में एकता बुद्धि ही परके संगसे रहित आत्मस्वभाव कैसा है-वह जाने बिना अब्रह्मपरिणति है, और विकार-रहित शुरआत्मामें परिउत्तम ब्रह्मचर्य नहीं होता। लौकिक ब्रह्मचर्य शुभ राग है, णामकी एकता ही ब्रह्म परिणति है। यही परमार्थ धर्म नहीं है और उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है राग नहीं है। ब्रह्मचर्य धर्म है।" शुद्धमात्मस्वभावकी रुचिके बिना विषयोंकी रुचि दूर नहीं “आत्म स्वभावकी प्रतीतिके बिना स्त्रीको छोड़ कर होती। मेरी सुखदशा मेरे ही स्वभावमेंसे प्रगट होती हैं, यदि ब्रह्मचर्य पाले तो वह पुण्यका कारण है, किन्तु, वह उसके प्रगट होने में मुझे किसीकी अपेक्षा नहीं है-ऐसी उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म नहीं है, और उससे कल्याण नहीं परसे भिन्न स्वभावकी दृष्टि हुए बिना विषयोंकी रुचि नहीं होता। विषयोंमें सुखबुद्धि अथवा निमित्तकी अपेक्षाका छटती । बाह्यमें विषयोंका त्याग करदे, किन्तु अंतरंगसे उत्साह संसारका कारण है। यहाँ पर जिस प्रकार विषयोंकी रुचि दूर न करे तो वह ब्रह्मचर्य नहीं है। स्त्री, पुरुषके लिए स्त्रीको संसारका कारण रूप कहा है, घरवार छोड़ कर त्यागी हो जाये, अशुभ भाव छोड़ कर उसी प्रकार स्त्रियोंको भी पुरुषकी रुचि सो संसारका शुभ करे, किन्तु उस शुभ भावमें जिसे रुचि एवं धर्म- कारण है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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