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________________ किरण ३] तत्वाथसूम्रका महत्व [१३७ भागोंका अलग अलग प्रतिपादन करनेवाले तीन अनुयोगा- और काल इन छः द्रव्यों के रूप में हमारी जानकारीमें में जैन आगमको भी विभक्त कर दिया गया है। श्रायगा और जब हम आध्यात्मिक दृष्टिसे अर्थात् प्रारमतत्त्वार्थसत्र मख्यतः आध्यात्मिक विषयका प्रतिपादन कल्याणकी भावनासे वस्ततत्वकी जानकारी प्राप्त करना करने वाला ग्रन्थ है, कारण कि इसमें जो कुछ लिखा गया चाहेंगे तो उस समय वस्तु तत्व जीव, अजीव, श्राश्रव, है वह सब प्रात्मकल्याणकी दृष्टिसे ही लिखा गया हैं वन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंके रूपमें अथवा वही लिखा गया है जो प्रात्मकल्याणकी दृष्टि से हमारी जानकारी में अायगा। अर्थात् जब हम "विश्व क्या प्रयोजन भूत है, फिर भी यदि विभाजित करना चाहे तो है ?' इस प्रश्नका समाधान करना चाहेंगे तो उस समय कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थके पहिले, दूसरे, तीसरे, हम इस निष्कर्षपर पहुँचेंगे कि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म चौथे, छठे, आठवें और दशवें अध्यायोंमें मुख्यतः श्राध्या- आकाश और काल इन.छः द्रव्योंका समुदाय ही विश्व है सिक दृष्टि ही अपनायी गयी है, इसी तरह पांचवें अध्याय और जब हम अपने कल्याण अर्थात् मुक्तिकी ओर अग्रसर में मौतिक दृष्टिका उपयोग किया गया है और सातवें होना चाहेंगे तो उस समय हमारे सामने ये सात प्रश्न खड़े तथा नवम अध्यायोंमें विशेषकर आचार या कर्तब्य सम्बन्धी हो जावेंगे-(१) मैं कौन हूँ?. (२) क्या मैं बद्ध है? उपदेश दिया गया है। (३) यदि द्ध हूँ तो किससे बद्ध हूँ ?, (४) किन कारणोंसे ___तत्वार्थसूत्र आध्यात्मिक दृष्टिसे ही लिखा गया है या मैं उससे बद्ध हो रहा हूँ?, (१) बन्धके वे कारण कैसे उसमें प्राध्यात्मिक विषयका ही प्रतिपादन किया गया है दूर किये जा सकते हैं ? (१) वर्तमान बन्धनको कैसे दूर यह निष्कर्ष इस ग्रन्थकी लेखनपदतिसे जाना जा सकता किया जा सकता है ? और (७) मुक्ति क्या है ? और तब है। इस ग्रन्थका 'सभ्यग्दर्शनमानचारित्राणि मोक्षमार्ग: इन प्रश्नोंके समाधानके रूपमें जीव. जिससे जीव बंधा यह पहला सूत्र है, इसमें सम्यग्दर्शन सभ्याज्ञान और हुआ है ऐसा कर्म नोकर्मरूप पुद्गल, जीवका उक्त दोनों सम्यक्चरित्रको मोक्षका मार्ग बतलाया गया है । तदनन्तर नता प्रकारके पुद्गलके साथ संयोगरूपबन्ध, इस बन्धके 'तत्वार्थ-श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' इस सूत्रद्वारा तत्त्वार्थोके कारणीभूत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग श्रद्धानको सम्यकदर्शनका स्वरूप बतलाते हुए 'जीवाजीवा रूप आश्रव, इन मिथ्यात्व भादिकी समाप्तिरूप संवर श्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्'इस सूत्रद्वारा जीव,अजीव, तपश्चरणादिके द्वारा वर्तमान बन्धनको ढीला करनेरूप अाश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष रूपसे उन तत्वार्थों निर्जरा और उक्त कर्म नोकर्मरूप पुद्गलके साथ सर्वथा की सात संख्या निर्धारित करदी गयी है और फिर द्वितीय सम्बन्ध विच्छेद करलेने रूप मुक्ति ये साप्ततत्व हमारे तृतीय-चतुर्थ-अध्यायोंमें जीवतत्वका, पञ्चम अध्यायमें निष्कर्षमें पायेंगे। अजीवतत्वका छठे और सातवें अध्यायों में श्राश्रव तत्व का, भौतिक दृष्टिसे वस्तुतत्व द्रव्यरूप में ग्रहीत होता है पाठवें अध्यायमें बन्धतत्वका नवम अध्यायमें संवर और और आध्यात्मिक दृष्टि से वह तत्वरूपमें ग्रहीत होता है। मिर्जरा इन दोनों तत्वोंका और दशत्रे अध्याय में मोक्षतत्व- इसका कारण यह है कि भौतिक दृष्टि वस्तुके अस्तित्व, का इस तरह क्रमशः विवेचन करके ग्रन्थको समाप्त कर स्वरूप और भेदप्रभेदके कथनसे सम्बन्ध रखती है और दिया गया है। आध्यात्मिक दृष्टि आत्माके पतन और उसके कास्णोंका जैन आगममें वस्तुविवेचन के प्रकार . प्रतिपादन करते हुए उसके उत्थान और उत्थानके कारणों का ही प्रतिपादन करती है। तात्पर्य यह है कि जब हम जैन श्रागममें वस्तुतत्वका विवेचन हमें दो प्रकारसे - देखनेको मिलता है-कहीं तो हन्योंके रूप में और कहीं ..अजीवकावा धर्माधर्माकाशपुद्गलाः,दग्याणि, जीवाश्च. तत्वोंके रूपमें। वस्तु-तत्व विवेचनके इन दो प्रकारोंका कालश्च । (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ५ सूत्र नंबर. आशय यह है कि जब हम भौतिक दृष्टिसे अर्थात् सिर्फ वस्तु क्रमशः १, २. ३ ३६ । स्थितिके रूप में वस्तुतत्वकी जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे २. जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् । तो उस समय वस्तुतत्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश (तत्वार्थसूत्रअध्याय 1, सूत्र ४) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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