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किरण
तत्वाचे सूत्रका महत्व
और करनेकी प्रेरणाको ही करुणा कहते हैं। अगर हृदयमें त्याग धर्म हमारे प्रास्माको पवित्र बनाता है। वह हमारी 'देने और करनेकी वास्तविक प्ररणा न हो तब तो दया जीवन शुद्धिका कारण है । जो जितना त्यागी है वह उतना अथवा करुणाका पाखण्ड ही समझिये ।
ही महान और वन्दनीय है। महासंग्रहशील चक्रवर्ती __त्याग धर्म अथवा कोई भी धर्म केवल व्याख्याकी सम्राट महात्यागी तीर्थकरकी घरणरजको पाकर अपने वस्तु नहीं है। हमें स्वतः सिद्ध तत्त्वको उतना समझाने की प्रापको धन्य समझता है। सचमुच जीवनकी सफलता जरूरत नहीं है जितनी जीवन में उतारनकी है। सचमच त्यागसे ही है।
तत्वार्थ-सूत्रका महत्व
(पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य ) महत्व और उसका कारण
सही उत्तर यही है कि इस सूत्र ग्रन्थके अन्दर समूची इसमें संदेह नहीं, कि तत्वार्थसूत्रके महत्त्वको श्वेताम्वर
जैनसंस्कृतिका अत्यन्त कुशलताके साथ समावेश कर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंने समानरूपसे स्वीकार
दिया गया है। किया है, यही सबब है कि दोनों सम्प्रदायोंके विद्वान प्राचार्योंने इस पर टीकायें लिखकर अपनेको सौभाग्यशाली
संस्कृति निर्माणका उद्देश्य लोक-जीवनको सुखी माना है । सर्वसाधारणके मन पर भो तत्वार्थसूत्रके
बनाना तो सभी संस्कृति निर्माताओंमे माना है। कारण कि महत्वकी अमिट छाप जमी हुई है।
उद्देश्यके विना किसी भी संस्कृतिके निर्माणका कुछ भी दशा-याये परिच्छिन्ने तत्व र्थे पठिते सति ।
महत्व नहीं रह जाता है परन्तु बहुत सी संस्कृतियाँ इससे , फलं स्यादुपचासस्य भाषितं मुनि
भी आये अपना कुछ उद्देश्य रखती हैं और उनका वह इस पद्यने सर्वसाधारणकी हमें इसका महत्व बढ़ाने- उद्देश्य प्रात्मकल्याणका लाभ माना गया है। जैसंस्कृति में मदद दी है। यही कारण है कि कमसे कम दिगम्बर ऐसी संस्कृतियामें से एक है । तात्पर्य यह है कि जैन समाजकी अपड़ महिलायें भी दूसरोके द्वारा सूत्र पाठ सुन संस्कृतिका निर्माण लोकजीवनको सुखी बनामेके साथ-साथ कर अपनेको धन्य समझने लगती हैं। दिगम्बर समाजमें प्रात्मकल्याणकी प्राप्ति (मुक्ति) को ध्यानमें रखकरके ही यह प्रथा प्रचलित है कि पपूषणपर्वके दिनोंमें तत्वार्थ- किया जाता है। सूत्रको खासतौरसे सामूहिक पूजा की जाती है और स्त्री एवं पुरुष दोनों वर्ग बड़ी भक्तिपूर्वक इसका पाठ किया या सुना करते हैं। नित्यपूजामें भी तत्वार्थसूत्रके नामसे पूजा करने वाले लोग प्रति दिन अर्घ चढ़ाया करते हैं और विश्वकी सभी संस्कृतियोंको आध्यात्मिक संस्कृतियाँ वर्तमान में जबसे दिगम्बर समाजमें विद्वान दृष्टिगोचर होने मानने में किसीको भी विवाद नहीं होना चाहिए, क्योंकि बगे, तबसे पपूषणपर्व में इसके अर्थका प्रवचन भी होने आखिर प्रत्येक संस्कृतिका उद्देश्य लोकजीवनमें सुखव्यलगा है । अर्थप्रवचनके लिए तो विविध स्थानोंकी दि. जैन वस्थापन तो है ही, भले ही कोई संस्कृति प्रात्मतत्वको जनता पाषण पर्वमें बाहरसे भी विद्वानोंको बुलानेका स्वीकार करती हो या नहीं करती हो । जैसे चार्वाककी प्रबन्ध किया करती है। तत्वार्थसूत्रकी महत्ताके कारण ही संस्कृति में आत्मतत्वको नहीं स्वीकार किया गया है फिर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंके बीच कर्ता-विष- भी लोकजीवनको सुखी बनानेके लिए "महाजनो येन गतः यकं मतभेद पैदा हुआ जान पड़ता है।
स पन्था" इस वाक्यके द्वारा उसने लोकके लिये सुखकी ' यहाँ पर प्रश्न यह पैदा होता है कि तत्वार्थसूत्रका साधनाभूत एक जीवन व्यवस्थाका निर्देश तो किया ही इतना महत्व क्यों है? मेरे विचारसे इसका सीधा एवं है। सुखका व्यवस्थापन और दुःखका विमोचन ही
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