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________________ संग्रहकी वृत्ति और त्याग धर्म (ले० श्री पं० चैनसुखदासजी, न्यायतीर्थ ) धर्म प्रात्माकी उस वृत्ति अथवा प्रवृत्तिका नाम है लिये वह उचित अनुचित सब प्रकारके प्रयत्न करता है। जो मनुष्यके प्राध्यात्मिक एवं वौयक्तिक अभ्युदयका कारण न्याय और अन्यायका भेद वह उस समय भूल जाता है हो । धर्मका यह लक्षण मनुष्य-परक है । सारे संसारके जब धन संग्रहका अवसर होता है । त्यागके प्रकरणमें प्राणियों में मनुष्यों की संख्या बहुत कम है। पशु-पक्षी और संग्रहका अर्थ यद्यपि केवल धनसंग्रह ही नहीं है, किन्तु - देव-नारकोंमें भी धर्मवृत्ति जागृत होती है और वे भी संसारके सारे संग्रह धनसे खरीदे जा सकते हैं इसलिये अपने आध्यास्मिक उत्थानकी ओर प्रवृत्त हो सकते हैं- संग्रह शब्दसे मुख्यतः धनसंग्रह ही लिया जाता है। इसलिए धर्मका लक्षण ऐसा भी है जो मनुष्यातिरिक्त- दुनियांके प्रतिशत निन्यानवें पापोंका कारण संग्रह ही है। प्राणियों में भी मिल सके। जो आमाको दुःखोंसे उन्मुक्त जब से मनुष्यमें संग्रहकी भावना उत्पन्न हुई है तभीसे करे वही धर्म है, और बह धर्म सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान मानव समाजमें दुःखों और पापोंकी सृष्टि भी देखी जाती और सच्चे चरित्रके रूपमें प्रस्फुटित होता है। इसके है। संग्रह पाप और दुःख इन सबकी एक परम्परा है। विपरीत जो कुछ है वह अधर्म है। यह धर्मका सामान्य संग्रहसे पाप पैदा होते हैं और वे ही दुका कारण हैं। लक्षण है। जैनशास्त्रोंकी भोगभूमिमें कोई मनुष्य दुःखी नहीं था, इसका कारण केवल यही था कि उस समय के मनुष्यमें चरित्रके रूप में जो धर्म प्रस्फुटित होता है उसकी नाना संग्रहकी प्रवृत्ति नहीं थी। तब मनुष्यकी इच्छाएँ भी कम 'शाखाएँ हैं । त्याग भी उसका एक रूप है। त्याग धर्म भी थीं । आज तो मनुष्यकी अपरिमित इच्छाएँ हैं और इनका मनुष्य-परक है, क्योंकि मनुष्यके अतिरिक्त दूसरे प्राणियों में संग्रहकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । मनुष्य-संसारका सारा उत्तरदायित्व संग्रह पर है। कविने ठीक ही कहा है कि-'मनुष्यकी तृष्णाका गड़ा इतना गहरा हो गया है सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, इसलिए कोई भी विवेचन उसीकी कि उसे भरनेके लिए यह समूचा विश्व भी एक अणुके मुख्यतासे किया जाता है । संग्रह और त्याग, पात्र और समान है।' तब एक एक मनुष्यके इतने गहरे गड्ढेको कैसे अपात्र, संसार और मुक्ति, पुण्य और पापके सारे विवेचन भरा जाय ! यह एक भयंकर समस्या है, और यह समस्या मनुष्यको लक्ष्य करके किये गये हैं। सम्भव है किसी किसी केवल वैयक्तिक नहीं अपितु राष्ट्रोंमें भी यह रोग पशु अथवा.पक्षी में भी संग्रहकी भावमा हो, पर ऐसे अप फैल गया है। सारे छोटे और बड़े युद्ध, आक्रमण, वाद नगण्य समझे जाते हैं मनुष्य में तो संग्रहकी प्रवृत्ति अत्याचार और आततायिपन इसी समस्याके भयंकर जन्मजात है। बच्चा भी और नहीं तो अपने खेलोंका संग्रह तो करने ही लगता है । ज्यों-ज्यों मनुष्य बड़ा होता परिणाम हैं। इस संग्रहतृष्णाकी समस्याका एक मात्र हल त्याग जाता है उसके संग्रहकी भावनामें वृद्धि होती जाती है। धर्म ही है । जबसे दुनियामें संग्रहका पाप आया तभीसे वह जीवनके अन्त तक भी इस संग्रहके अभ्याससे विरक्त त्याग धर्मकी भी उत्पत्ति हुई । अन्धकार और प्रकाश, होना नहीं चाहता । दुख की बात तो यह है कि इस संग्रह बन्धन और मुक्ति, ज्ञान और अज्ञानकी तरह धर्म और की प्रवृत्तिमें जो जितना अधिक सफल होता है इस संसार में वह उतना ही आदरणीय सत्कृत और पुरस्कृत माना पाप साथ साथ जन्मते हैं । संग्रहके पापके साथ अगर त्यागधर्म न पाता तो दुनियाकी जो अवस्था होती जाता है। राजाओं, सम्राटों और धनिकोंके सारे यशोगानका उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । त्यागधर्म कारण उनका अपार संग्रह ही है। संग्रहके पापको धो डालता है। फिर भी हमें यह समजब मनुष्य देखता है कि संग्रहशील अर्थात् धनसंच. मना है कि प्रत्येक त्याग धर्म नहीं होता। स्यागको यकारियोंका हर जगह सम्मान होता है तो वह भी उनका धर्म बनानेके लिए हमें विवेककी जरूरत होती है। अनुकरण करता है और अपने इस मनोरथमें सफल होनेके निस त्यागमें अहंकार हो, लोकषणकी भावना हो या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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