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________________ किरण १२ ]. धर्म और वर्तमान परिस्थितियाँ [४७३ ५ नैतिकस्तरको उन्नत करनेके लिये सदाचार, भ्रातृत्व-भावना, नम्रता, वात्सल्य, सेवा-शुश्रूषाकी प्रवृत्ति आदि गुणोंका विकास एवं ६ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहकी। भावनाओंका प्रचार करना। मानसिकशक्ति और उसके विकासके साधन मानसिकशक्तिमें बुद्धि, मन, हृदय और मस्तिष्कका विकास शामिल है । इन चारोंके विकसित हुए बिना धर्मका पालन यथार्थतः नहीं हो सकता। जिस प्रकार शरीरके विकासके लिये उत्तम भोजनकी आवश्यकता है उसी प्रकार मानवकी मानसिक शक्तिके विकासके लिये साहित्य और कलाकी आवश्यकता है। गहराईमें पैठनेपर पता लगता है कि कलाका अर्थ संकुचित नहीं, किन्तु सम्यक् प्रकार जीना भी कलामें परिगणित है। केवल पेट भरना और अन्तमें रामनाम सत्य हो जाना' जीना नहीं है; अतएव वे धार्मिक नियम कला हैं जिनके सेवनसे शरीर ऐसा सबल हो, जिससे किसी भी प्रकारका रोग उत्पन्न न हो सके, आलस्य और थकावट न मालूम हो । मन इतना पवित्र हो जिससे बुरे विचार कभी उत्पन्न न हों; ऊँचे आदर्शकी कल्पनाएँ उबुद्ध हों, हृदय इतना निर्मल हो, कि दया और अहिंसाकी भावनाएँ उत्पन्न हों एवं बुद्धि ऐसी हो जिससे सत्-असत्का यथार्थ निणय कर सके। धर्मका कार्य इसी कलाको सिखलाना है, वासना उबुद्ध करनेवाली कलाको नहीं। आत्मिकशक्ति और उसके विकासके साधन आत्मिक गुण ज्ञान, दर्शन और चारित्रका विकास करना धर्मका चरम लक्ष्य है। इनके पूर्ण विकसित हानेपर ही शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है। साधकके लिये सबसे आवश्यक यह है कि वह सर्व प्रथम श्रात्मतत्त्वका विश्वास कर अनात्मिक भावोंको छोड़नेका प्रयत्न करे। जबतक मानवकी बुद्धि भौतिक सुखोंकी ओर रहती है, आध्यात्मिक शक्तिका विकास नहीं होता; लेकिन जैसे-जैसे भौतिकतासे ऊपर उठता जाता है; आत्मिक गुण प्रकट होने लगते हैं। जो संयम-इन्द्रियनिग्रह-भोजन-वस्त्रकी चिन्ता रखनेवाले व्यक्तिको बुरा मालूम होता है, वही संयम विकसित मस्तिष्क और हृदयवालेको कल्याणकारी होता है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वह प्रत्यक्षके प्रयोगसे इन्कार करता है, बल्कि यह है कि इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक और विनाशीक होनेके कारण पूर्णतृप्तिमें असमर्थ हैं । पूर्णतृप्तिके साधन त्याग, विनय, संयम, आत्मचिन्तन, क्षमा, मार्दव, शौच और ब्रह्मचर्य आदि हैं। उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि धर्मका सम्बन्ध जहाँ आत्मकल्याणके साथ है, वहाँ आजकी रोटी और वस्त्रकी समस्याओंको भी सुलझाना है। केवल आध्यात्मवाद आजके युगमें धर्मका विश्लेषण नहीं कर सकता। धर्मसे लोगोंके मनमें जो ग्लानि और उपेक्षा उत्पन्न होगई है. उसका मूल कारण आजकी समस्याओंको सुलझानेका प्रयत्न न करना ही है। यदि लोग धर्मको परलोककी वस्तु न मानकर आजकी दुनियाकी वस्तु समझ और आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियोंको सुलझाने में उसका उपयोग करें तो लोगोंके लिये धर्म हौआ न रहे। यह तो ऐसा पवित्र पदार्थ है जिसके सामने ऊँच-नीच, छुआ-छूत, छोटा-बड़ा, घृणा-द्वेष, कलह-राग, आदि बातें क्षणभर भी नहीं ठहर सकती हैं। आज लोगोंने धर्मके गलेको घोंटकर उसे साम्प्रदायिकताका जामा पहना दिया है, जिससे वह सिर्फ परलोककी वस्तु बन गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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