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________________ ४६४ ] [ वर्ष ह हुए भी उसे यों सी टीकामें लाकर घुसेड़ा है। ऐसी स्थिति में सिद्धसेन दिवाकरको दिगम्बरपरम्परासे भिन्न एकमात्र श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचार्य कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता । सिद्धसेनने तो श्वेताम्बरपरम्पराकी किसी विशिष्ट बातका कोई समर्थन न करके उल्टा उसके उपयोग-द्वय विषयक क्रमवादकी मान्यताका सन्मतिमें जोरोंके साथ खडन किया है और इसके लिये उन्हें अनेक साम्प्रदायिक कट्टरताके शिकार श्वेताम्बर आचार्योंका कोपभाजन एवं तिरस्कारका पात्र तक बनना पड़ा है। मुनि जिनविजयजीने. 'सिद्धसेनदिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' नामक लेखमें उनके इस विचारभेदका उल्लेख "सिद्धसेनजीके इस विचारभेदके कारण उस समयके सिद्धान्त - ग्रन्थ- पाठी और आगमप्रवरण आचार्यगण उनको 'तर्कम्मन्य' जैसे तिरस्कार व्यञ्जक विशेषणों से अलंकृत कर उनके प्रति अपना सामान्य अनादर भाव प्रकट किया करते थे ।” अनेकान्त "इस (विशेषावश्यक) भाष्य में क्षमाश्रमण (जिनभद्र ) जीने दिवाकरजी के उक्त विचारभेदका खूब ही खण्डन किया है और उनको 'आगम-विरुद्ध-भाषी' बतलाकर उनके सिद्धान्तको अमान्य बतलाया है ।' “सिद्धसेनगणीने 'एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः' (१-३१ ) इस सूत्रकी व्याख्या में दिवाकरजीके विचारभेदके ऊपर अपने ठीक वाग्बाण चलाये हैं। गरणीजीके कुछ वाक्य देखिये- 'यद्यपि केचित्पण्डितंमन्याः सूत्रान्यथाकारमर्थमाचक्षते तर्कबलानुबद्धबुद्धयो वारंवारेणोपयोगो नास्ति, तत्तु न प्रमाणयामः, यत आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारंवारेगोपयोगं प्रतिपादयन्ति । " दिगम्बर साहित्यमें ऐसा एक भी उल्लेख नहीं जिसमें सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेनके प्रति अनादर अथवा तिरस्कारका भाव व्यक्त किया गया हो - सर्वत्र उन्हें बड़े ही गौरवके साथ स्मरण किया गया है, जैसा कि ऊपर उद्धृत हरिवंशपुराणादिके कुछ वाक्योंसे प्रकट है । . कलङ्कदेवने उनके अभेदवादके प्रति अपना मतभेद व्यक्त करते हुए किसी भी कटु शब्दका प्रयोग नहीं किया, बल्कि बड़े ही आदर के साथ लिखा है कि "यथा हि असद्भूतमनुपदिष्टं च जानाति तथा पश्यति किमत्र भवतो हीयते " - अर्थात् केवली (सर्वज्ञ) जिस प्रकार असद्भूत और अनुपदिष्टको जानता है उसी प्रकार उनको देखता भी है इसके माननेमें आपकी क्या हानि होती है ? - वास्तविक बात तो प्रायः ज्योंकी त्यों एक ही रहती है । अकलङ्कदेवके प्रधान टीकाकार आचार्य श्री अनन्तवीर्यजीने सिद्धिविनिश्चयकी टीकामें 'असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः । द्वेधा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने ।' इस कारिकाकी व्याख्या करते हुए सिद्धसेनको महान् आदर - सूचक 'भगवान्' शब्द के साथ उलेखित किया है और जब उनके किसी स्वयुध्यने — स्वसम्प्रदाय के विद्वान्ने - यह आपत्ति की कि 'सिद्धसेनने एकान्त के साधन में प्रयुक्त हेतुको कहीं भी सिद्ध नहीं बतलाया है अतः एकान्तके साधनमें प्रयुक्त हेतु सिद्धसेनकी दृष्टिमें असद्ध है' यह वचन सूक्त न होकर अयुक्त है, तब उन्होंने यह कहते हुए कि 'क्या उसने कभी यह वाक्य नहीं सुना है' सन्मतिसूत्रकी 'जे संतत्रायदोसे' इत्यादि कारिका (३-५० ) को उद्धृत किया है और उसके द्वारा एकान्तसाधनमें प्रयुक्त हेतुको सिद्धसेनकी दृष्टिमें 'सिद्ध' प्रतिपादन करना सन्निहित बतलाकर उसका समाधान किया है । यथाः १ देखो, सन्मति तृतीय काण्डगत गाथा ६५की टीका ( पृ० ७५४), जिसमें “भगवत्प्रतिमाया भूषणाद्या• रोपणं कर्मक्षयकारण" इत्यादि रूपसे मण्डन किया गया है। १०, ११ । For Personal & Private Use Only २ जैनसाहित्य संशोधक, भाग १ अङ्क १ पृ० Jain Education Internatio करते हुए लिखा है www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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