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________________ किरण ११ ] सन्मति-सिद्धसेनाङ्क [४५७ नियमसारकी टीकामें पद्मप्रभ मलधारिदेवने सिद्धान्तोद्भश्रीधवं सिद्धसेन..."वन्दे' वाक्यके द्वारा सिद्धसेनकी वन्दना करते हुए उन्हें 'सिद्धान्तकी जानकारी एवं प्रतिपादनकौशलरूप उच्चश्रीके स्वामी' सूचित किया है। प्रतापकीर्तिने आचार्यपूजाके प्रारम्भमें दी हुई गुर्वावलीमें "सिद्धान्तपाथोनिधिलब्धपारः श्रीसिद्धसेनोऽपि गणस्य सारः" इस वाक्पके द्वारा सिद्धसेनको 'सिद्धान्तसागरके पारगामी' और 'गणके सारभूत' बतलाया है। मुनिकनकामरने 'करकंडुचरिउ में, सिद्धसेनको समन्तभद्र तथा अकलङ्कदेवके समकक्ष 'श्रुतजलके समुद्र" रूपमें उल्लेखित किया है। ये सब श्रद्धांजलि-मय दिगम्बर उल्लेख भी सन्मतिकार-सिद्धसेनसे सम्बन्ध रखते हैं, जो खास तौरपर सैद्धान्तिक थे और जिनके इस सैद्धान्तिकत्वका अच्छा आभास ग्रन्थके अन्तिम काण्डकी उन गाथाओं (६१ आदि)से भी मिलता है जो श्रुतधर-शब्दसन्तुष्टों, भक्तसिद्धान्तज्ञों और शिष्यगणपरिवृत-बहुश्रुतमन्योंकी आलोचनाको लिए हुए हैं। . श्वेताम्बर सम्प्रदायमें आचार्य सिद्धसेन प्रायः 'दिवाकर' विशेषण अथवा उपपद (उपनाम)के साथ प्रसिद्धिको प्राप्त हैं। उनके लिये इस विशेषण-पदके प्रयोगका उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमें सबसे पहले हरिभद्रसूरिके 'पञ्चवस्तु' ग्रन्थमें देखनेको मिलता है, जिसमें उन्हें दुःषमाकालरूप रात्रिके लिये दिवाकर (सूर्य) के समान होनेसे 'दिवाकर'की आख्याको प्राप्त हुए लिखा है । इसके बादसे ही यह विशेषण उधर प्रचारमें आया जान पड़ता है; क्योंकि श्वेताम्बर चूर्णियों तथा मल्लवादीके नयचक्र-जैसे प्राचीन ग्रन्थोंमें जहाँ सिद्धसेनका नामोल्लेख है वहाँ उनके साथमें 'दिवाकर' विशेषणका प्रयोग नहीं पाया जाता है । हरिभद्रके बाद विक्रमकी ११वीं शताब्दीके विद्वान् अभयदेवसूरिने सन्मतिटीकाके प्रारम्भमें उसे उसी दुःषमाकालरात्रिके अन्धकारको दूर करनेवालेके अथमें अपनाया है। श्वेताम्बरं सम्प्रदायकी पट्टावलियोंमें विक्रमकी छठी शताब्दी आदिकी जो प्राचीन पट्टावलियाँ हैं जैसे कल्पसूत्रस्थविरावली(थेरावली), नन्दीसूत्रपट्टावली, दुःषमाकाल-श्रमणसंघस्तव-उनमें तो मिद्धसेनका कहीं कोई नामोल्लेख ही नहीं है । दुःषमाकालश्रमणसंघकी अवचरिम, जो विक्रमकी हवीं शताब्दीसे बादका रचना है, सिद्धसेनका नाम जरूर है किन्तु उन्हें 'दिवाकर' न लिखकर 'प्रभावक' लिखा है और साथ ही धर्माचार्यका शिष्य सूचित किया है-वृद्धवादीका नहीं: "अत्रान्तरे धर्माचार्य-शिष्य-श्रीसिद्धसेन-प्रभावकः ॥" दूसरी विक्रमकी १५वीं शताब्दी आदिकी बनी हुई पट्टावलियोंमें भी कितनी ही पटावलियाँ ऐसी हैं जिनमें सिद्धसेनका नाम नहीं है जैसे कि गुरुपर्वक्रमवर्णन. तपागच्छपट्टावलोसूत्र, महावीरपट्टपरम्परा, युगप्रधानसम्बन्ध (लोकप्रकाश) और सूरिपरम्परा। हाँ, तपागच्छपट्टावलीसूत्रकी वृत्तिमें, जो विक्रमकी १७वीं शताब्दी (सं० १६४८)की रचना है, सिद्धसेनका 'दिवाकर' विशेषणके साथ उल्लेख जरूर पाया जाता है । यह उल्लेख मूल पट्टावलीकी १ तो सिद्धसेण सुसमंतभद्द अकलकदेव सुअजलसमुद्द । क. २ २ अायरियसिद्धसेणेण सम्मइए पछिअजसेणं । दूसमणिसा-दिवागर-कप्पन्तणो तदक्खेणं ॥१०४८ ३ देखो, सन्मतिसूत्रकी गुजराती प्रस्तावना पृ० ३६, ३७ पर निशीथचूर्णि (उद्देश ४) और दंशाचूर्णिके उल्लेख तथा पिछले समय-सम्बन्धी प्रकरणमें उद्धृत नयचक्रके उल्लेख । . ४ "इति मन्वान श्राचार्यो दुषमाऽरसमाश्यामासमयोद्भ तसमस्तजनाहादसन्तमसविध्वंसकत्वेनावाप्तयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायभूतसम्मत्याख्यप्रकरणकरणे प्रवर्तमानः........."स्तवामिधायिका गाथामाह ".. Jain Education International Per Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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