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________________ किरण ११ ] सन्मति - सिद्धसेनाङ्क [ ४५५ उपलब्ध जैनवाङ्मय में समयादिककी दृष्टिसे श्रद्य तार्किकादि होनेका यदि किसीको मान अथवा श्रेय प्राप्त है तो वह स्वामी समन्तभद्रको ही प्राप्त है। उनके देवागम (आप्तमीमांसा), युक्तधनुशासन, स्वयम्भूस्तोत्र और स्तुतिविद्या (जिनशतक) जैसे ग्रन्थ आज भी जैनसमाज में अपनी जोड़का कोई ग्रन्थ नहीं रखते । इन्हीं प्रन्थोंको मुनि कल्याणविजयजीने भी उन निर्मन्थचूड़ामणि श्रीसमन्तभद्रकी कृतियाँ बतलाया है जिनका समय भी श्वेताम्बर मान्यतानुसार विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दी है' । तब सिद्धसेनको विक्रमकी ५वीं शताब्दीका मान लेनेपर भी समन्तभद्रकी किसी कृतिको सिद्धसेनकी कृतिका अनुकरण कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता । इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि पं० सुखलालजीने सन्मतिकार सिद्धसेनको विक्रमकी पाँचवीं शताब्दीका विद्वान् सिद्ध करनेके लिये जो प्रमाण उपस्थित किये हैं वे उस विषयको सिद्ध करनेके लिये बिल्कुल असमर्थ हैं। उनके दूसरे प्रमाणसे जिन सिद्धसेनका पूज्यपाद से पूर्ववर्तित्व एवं विक्रमकी पाँचवीं शताब्दी में होना पाया जाता है वे कुछ द्वात्रिंशिकाओंके कर्त्ता हैं न कि सन्मतिसूत्रके, जिसका रचनाकाल नियुक्तिकार भद्रबाहुके समय से पूर्वका सिद्ध नहीं होता और इन भद्रबाहुका समय प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् मुनि श्रीचतुरविजयजी और मुनिश्री पुण्यविजयजीने भी अनेक प्रमाणोंके आधारपर विक्रमकी छठी शताब्दी के प्रायः तृतीय चरण तकका निश्चित किया है। पं० सुखलालजीका उसे विक्रमकी दूसरी शताब्दी बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता । अतः सन्मतिकार सिद्धसेनका जो समय विक्रमकी छठी शताब्दी के तृतीय चरण और सातवीं शताब्दीके तृतीय. चरणका मध्यवर्ती काल निर्धारित किया गया है वही समुचित प्रतीत होता है, जब तक कि कोई प्रबल प्रमाण उसके विरोध में सामने न लाया जावे। जिन दूसरे विद्वानोंने इस समयसे पूर्वकी अथवा उत्तरसमयकी कल्पना की है वह सब उक्त तीन सिद्धसेनोंको एक मानकर... उनमें से किसी एक के ग्रन्थको मुख्य करके की गई है अर्थात् पूर्वका समय कतिपय द्वात्रिशिकाओंके उल्लेखोंको लक्ष्य करके और उत्तरका समय न्यायावतारको लक्ष्य करके कल्पित किया गया है । इस तरह तीन सिद्धसेनोंकी एकत्वमान्यता ही सन्मतिसूत्रकारके ठीक समय-. निर्णय में प्रबल बाधक रही है, इसीके कारण एक सिद्धसेनके विषय अथवा तत्सम्बन्धी घटनाओंको दूसरे सिद्धसेनोंके साथ जोड़ दिया गया है, और यही वजह है कि प्रत्येक सिद्धसेनका परिचय थोड़ा-बहुत खिचड़ी बना हुआ है । (ग) सिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन अब विचारणीय यह है कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन किस सम्प्रदाय के आचार्य थे अर्थात् दिगम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखते हैं या श्वेताम्बर सम्प्रदायसे और किस रूप में उनका गुण-कीर्तन किया गया है । आचार्य उमास्वाति (मी) और स्वामी समन्तभद्रकी तरह सिद्धसेनाचार्य की भी मान्यता दोनों सम्प्रदायोंमें पाई जाती है। यह मान्यता केवल विद्वत्ताके नाते आदर-सत्कार के रूपमें नहीं और न उनके किसी मन्तव्य अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित किसी वस्तुतत्व या सिद्धान्त - विशेषका ग्रहण करनेके कारण ही है बल्कि उन्हें अपने अपने सम्प्रदायके गुरुरूपमें माना गया है, गुर्वावलियों तथा पट्टावलियोंमें उनका उल्लेख किया गया और उसी गुरुदृष्टिसे उनके स्मरण, अपनी गुणज्ञताको साथमें व्यक्त करते हुए, लिखे गये हैं। अथवा उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ अर्पित की गई हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय में सिद्धसेनको सेन (संघ) का आचार्य माना जाता है और सेनगणकी पट्टावली में उनका उल्लेख है । हरिवंश - Jain Education Internation १ तपागच्छपट्टावली भाग पहला पृ० ८०।२ जैनसिद्धान्तभास्कर किरण १ पृ० ३८ । www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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