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________________ ४५२ ] [ वर्षे ग्रन्थोंकी सिद्धसेनीय सन्मतिसूत्र के साथ तुलना करके पं० सुखलालजीने दोनों आचार्यों के इन ग्रन्थों में जिस 'वस्तुगत पुष्कल साम्य की सूचना सन्मतिकी प्रस्तावना ( पृ० ६६) में की है उसके लिये सन्मतिसूत्रको अधिकांशमें सामन्तभद्रीय ग्रन्थोंके प्रभावादिका आभारी समझना चाहिये । अनेकान्त शासनके जिस स्वरूप प्रदर्शन एवं गौरव - ख्यापनकी ओर समन्तभद्रका प्रधान, लक्ष्य रहा है उसीको सिद्धसेनने भी अपने ढङ्गसे अपनाया है। साथ ही सामान्य- विशेष - मातृक नयोंके सर्वथा सर्वथा, सापेक्ष-निरपेक्ष और सम्यक् - मिध्यादि-स्वरूपविषयक समन्तभद्रके मौलिक निर्देशों को भी आत्मसात् किया है । सन्मतिका कोई कोई कथन समन्तभद्र के कथनसे कुछ मतभेद अथवा उसमें कुछ वृद्धि या विशेष आयोजनको भी साथ में लिये हुए जान पड़ता हैं, जिसका एक नमूना इस प्रकार है: श्रीकान्त दव्वं खित्तं कालं भावं पज्जाय - देस -संजोगे । भेदं च पडुच्च समा भावारणं परणवरणपज्जा ॥३-६०॥ इस गाथामें बतलाया है कि 'पदार्थों की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग और भेदको आश्रित करके ठीक होती है; जब कि समन्तभद्रने “सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्” जैसे वाक्योंके द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयको ही पदार्थप्ररूपणका मुख्य साधन बतलाया है। इससे यह साफ जाना जाता है कि समन्तभद्रके उक्त चतुष्टयमें सिद्धसेनने बादको एक दूसरे चतुष्टयकी और वृद्धि की है, जिसका पहलेसे पूर्वके चतुष्टयमें ही अन्तर्भाव था । A रही द्वात्रिंशिका कर्ता सिद्धसेनकी बात, पहली द्वात्रिंशिकामें एक उल्लेख- वाक्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है, जो इस विषय में अपना खास महत्व रखता है: य एष षड्जीव-निकाय-विस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । अनेन सर्वज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदय सोत्सवाः स्थिताः ॥१३॥ इसमें बतलाया है कि 'हे वीरजिन ! यह जो षट् प्रकारके जीवोंके निकायों (समूहों) का विस्तार है और जिसका मार्ग दूसरोंके अनुभवमें नहीं आया वह आपके द्वारा उदित हुआ - बतलाया गया अथवा प्रकाशमें लाया गया है । इसीसे जो सर्वज्ञकी परीक्षा करने में समर्थ हैं वे (आपको सर्वज्ञ जानकर ) प्रसन्नताके उदयरूप उत्सवके साथ आपमें स्थित हुए हैं - बड़े . प्रसन्नचित्तसे आपके आश्रय में प्राप्त हुए और आपके भक्त बने हैं।' वे समर्थ सर्वज्ञ-परीक्षक कौन हैं जिनका यहाँ उल्लेख है और जो आप्तप्रभु वीरजिनेन्द्रकी सर्वज्ञरूपमें परीक्षा करनेके अनन्तर उनके सुदृढ़ भक्त बने हैं ? वे हैं स्वामी समन्तभद्र, जिन्होंने आप्तमीमांसा द्वारा सबसे पहले सर्वज्ञकी परीक्षा की हैं, जो परीक्षाके अनन्तर वीरकी स्तुतिरूपमें 'युक्त्तयनुशासन' स्तोत्रके रचनेमें प्रवृत्त हुए हैं और जो स्वयम्भू स्तोत्रके निम्न पद्योंमें सर्वज्ञका उल्लेख करते हुए उसमें अपनी स्थिति एवं भक्तिको " त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम्” इस वाक्यके द्वारा स्वयं व्यक्त १ कलङदेवने भी 'अष्टशती' भाष्य में तमीमांसाको “सर्वज्ञविशेषपरीक्षा" लिखा है और वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरितमें यह प्रतिपादित किया है कि 'उसी देवागम ( श्राप्तमीमांसा) के द्वारा स्वामी (समन्तभद्र ) ने आज भो सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है': Jain Education International "स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य न विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदश्यते ॥” २ युक्तयनुशासन की प्रथमकारिकामें प्रयुक्त हुए 'अ' पदका अर्थ श्रीविद्यानन्दने टीकामें "अस्मिन् काले परीक्षाऽवसानसमये" दिया है और उसके द्वारा श्राप्तमीमांसा के बाद युक्तयनुशासनकी रचनाको सूचित किया है । For Personal & Private, Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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