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अनेकान्त
[ बर्ष ६
ऐसी हालत में युगपत्वाद की सर्वप्रथम उत्पत्ति उमास्वाति से बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता, जैनवाङ्मय में इसकी अविकल धारा अतिप्राचीन काल से चली आई है। यह दूसरी बात है कि क्रम तथा अभेदकी धाराएँ भी उसमें कुछ बादको शामिल होगई हैं; परन्तु विकास क्रम युगपत्वादसे ही प्रारम्भ होता है जिसकी सूचना विशेषणवतीकी उक्त गाथाओं ('केई भांति जुगवं ' इत्यादि) से भी मिलती है । दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्द, समन्तभद्र और पूज्यपादके ग्रन्थोंमें क्रमवाद तथा अभेदवादका कोई ऊहापोह अथवा खण्डन न होना पं० सुखलालजीको कुछ अखरा है; परन्तु इसमें अखरने की कोई बात नहीं है। जब इन आचार्योंके सामने ये दोनों वाद आए ही नहीं तब वे इन वादोंका ऊहापोह अथवा खण्डनादिक कैसे कर सकते थे ? अकलङ्कके सामने जब ये वाद आए तब उन्होंने उनका खण्डन किया ही है; चुनाँचे पं० सुखलालजी स्वयं ज्ञानबिन्दुके परिचय में यह स्वीकार करते हैं कि " ऐसा खण्डन हम सबसे पहले अकलङ्ककी कृतियोंमें पाते हैं ।" और इसलिये उनसे पूर्वकी - कुन्दकुन्द समन्तभद्र तथा पूज्यपादकी – कृतियोंमें उन वादोंकी कोई चर्चा न हो इस बात को और भी साफ तौरपर सूचित करता है कि इन दोनों वादोंकी' प्रादुर्भूति उनके समय बाद हुई है । सिद्धसेनके सामने ये दोनों वाद थे- दोनोंकी चर्चा सन्मतिमें की गई है— अतः ये सिद्धसेन पूज्यपाद के पूर्ववर्ती नहीं हो सकते । पूज्यपादने जिन सिद्धसेनका अपने व्याकरण में नामोल्लेख किया है वे कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहियें । यहाँपर एक खास बात नोट किये जानेके योग्य है और वह यह कि पं० सुखलालजी सिद्धसेनको पूज्यपादसे पूर्ववर्ती सिद्ध करनेके लिये पूज्यपादीय जैनेन्द्र व्याकरणका उक्त सूत्र तो उपस्थित करते हैं परन्तु उसी व्याकरणके दूसरे समकक्ष सूत्र "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य " को देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैं— उसके प्रति गजनिमीलन- जैसा व्यवहार करते हैं- और ज्ञानविन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावना ( पृ० ५५ ) में विना किसी हेतुके ही यहाँ तक लिखनेका साहस करते हैं कि "पूज्यपादके उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समन्तभद्र" ने अमुक उल्लेख किया ! साथ ही, इस बात को भी भुला जाते हैं कि सन्मतिकी प्रस्तावना में वे स्वयं पूज्यपादको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला आए हैं और यह लिख आए हैं कि 'स्तुतिकाररूपसे प्रसिद्ध इन दोनों जैनाचार्यों का उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरणके उक्त सूत्रोंमें किया है, उनका कोई भी प्रकारका प्रभाव पूज्यपादकी कृतियोंपर होना चाहिये ।' मालूम नहीं फिर उनके इस साहसिक कृत्यका का रहस्य है ! और किस अभिनिवेशके वशवर्ती होकर उन्होंने अब यों ही चलती कलमसे समन्तभद्रको पूज्यपादके उत्तरवर्ती कह डाला है !! इसे अथवा इसके औचित्यको वे ही स्वयं समझ सकते हैं। दूसरे विद्वान् तो इसमें कोई औचित्य एवं न्याय नहीं देखते कि एक ही व्याकरण ग्रन्थमें उल्लेखित दो विद्वानोंमेंसे एकको उस ग्रन्थकार के पूर्ववर्ती और दूसरेको उत्तरवर्ती बतलाया जाय और वह भी विना किसी युक्ति के । इसमें सन्देह नहीं कि पण्डित सुखलालजी की बहुत पहलेसे यह धारणा बनी हुई है कि सिद्धसेन समन्तभद्र के पूर्ववर्ती हैं और वे जैसे तैसे उसे प्रकट करनेके लिये कोई भी अवसर चूकते नहीं हैं। हो सकता है कि उसीकी धुन में उनसे यह कार्य बन गया हो, जो उस प्रकटीकरणका ही एक प्रकार है; अन्यथा वैसा कहनेके लिये कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं है ।
पूज्यपाद समन्तभद्र के पूर्ववर्ती नहीं किन्तु उत्तरवर्ती हैं, यह बात जैनेन्द्रव्याकरण के उक्त “चतुष्टयं समन्तभद्रस्य " सूत्रसे ही नहीं किन्तु श्रवणबेलगोल के शिलालेखों आदि से भी भले प्रकार जानी जाती है'। पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्रका स्पष्ट प्रभाव है, इसे
१ देखो, श्रवणबेलगोल - शिलालेख नं० ४० (६४); १०८ (२५८); 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० १४१ - १३. नशा 'जैन जगत' वर्ष ६ श्र १५-१६ में प्रकाशित 'समन्तभद्रका समय और डा० के० बी०
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