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________________ ४४८] अनेकान्त [वर्ष ह चतुर्थ चरण तक पहुँचता है; क्योंकि वि० सं० २७के लगभग बनी हुई भट्टजयन्तकी न्यायमञ्जरीका 'गम्भीरगर्जितारम्भ' नामका एक पद्य हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयमें उद्धृत मिलता है, ऐसा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने न्यायकुमुदचन्द्र के द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें उद्घोषित किया है। इसके सिवाय, हरिभद्रने स्वयं शास्त्रवार्तासमुच्चयके चतुर्थस्तवनमें "एतेनैव प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि वाक्यके द्वारा बौद्धाचार्य शान्तरक्षितके मनका उल्लेख किया है और स्वोपज्ञटीकामें 'सूक्ष्मबुद्धिना'का 'शान्तरक्षितेन' अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया है। शान्तरक्षित धर्मोत्तर तथा विनीतदेवके भी प्रायः उत्तरवर्ती हैं और उनका समय राहुलसांकृत्यायनने वादन्यायके परिशिष्टोंमें ई० सन् ८४० (वि० सं० ८६७) तक बतलाया है । हरिभद्रको उनके समकालीन समझना चाहिये । इससे हरिभद्रका कथन उक्त समयमें बाधक नहीं रहता और सब कथनोंकी सङ्गति ठीक बैठ जाती है। नयचक्रके उक्त विशेष परिचयसे यह भी मालूम होता है कि उस अन्यमें सिद्धसेन नामके साथ जो भी उल्लेख मिलते हैं उनमें सिद्धसेनको प्राचार्य और 'सूरि' जैसे पदोंके साथ तो उल्लेखित किया है परन्त दिवाकर पदके साथ कहीं भी उल्लेखित नहीं किया है, लभी मुनि श्रीजम्बूषिजयजीकी यह लिखने में प्रवृत्ति हुई है कि "आसिद्धसेनसूरि सिद्धसेनदिवाकरज संभवतः होवा नोइये" अर्थात् यह सियसेनसूरि सम्भवतः सिद्धसेनदिवाकर ही होने चाहियें भले ही दिवाकर नामके साथ में उल्लेखित नहीं मिलते। उनका यह लिखना जनकी धारणा और भावनाका ही प्रतीक कहा जा सकता है। क्योंकि होला महिये'का कोई कारण साथमें व्यक्त नहीं किया गया। पं० सुखलालजीने अपने प्रमाण इन सिद्धसेनको 'दिवाकर' नामसे ही उल्लेखित किया है, जो कि वस्तुस्थितिका बड़ा ही गलत निरूपण है और अनेक भूल-भ्रान्तियोंको जन्म देने वाला है-किसी विषयको विचारके लिये प्रस्तुत करनेवाले निष्पक्ष विद्वानोंके द्वारा अपनी प्रयोजनादि-सिद्धिके लिये वस्तुस्थितिका ऐसा गलत चित्रण नहीं होना चाहिये । हाँ, उक्त परिचयसे यह भी मालूम होता है कि सिद्धसेन नामके साथ जो उल्लेख मिल रहे हैं उनमेंसे कोई भी उल्लेख सिद्धसेनदिवाकरके नामपर चढ़े हुए उपलब्ध प्रन्थोंमेंसे किसीमें भी नहीं मिलता है। नमूनेके तौरपर जो दो अल्लेखपरिचयमें उद्धृत किये गये हैं उनका विषय प्रायः शब्दशास्त्र (व्याकरण) तथा शब्दनयादिसे सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। इससे भी सिद्धसेनके उन उल्लेखोंको दिवाकरके उल्लेख बतलाना व्यर्थ ठहरता है। रही द्वितीय प्रमाणकी बात, उससे केवल ना ही सिद्ध होता है कि तीसरी और मकमी द्वात्रिंशिकाके कर्ता जो सिद्धसेन हैं वे पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले हुए है उनका समय विक्रमकी पाँचवीं शताब्दी भी हो सकता है । इससे अधिक यह सिद्ध नहीं होता कि सम्मतिसूत्रके का सिद्धसेन भी पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले अथवा विक्रमकी श्वीं शताब्दी में हुए हैं। १. हवीं शताब्दीके द्वितीय चरण तकका समय तो मुनि जिबविजयजीने भी अपने हरिभद्र के समयनिर्णयवाले लेखमें बतलाया है। क्योंकि विक्रमसंवत् ८३५ (शक सं० ७००)में बनी हुई कुवलयमालामें उद्योतनसूरिने हरिभद्रको न्यायविद्यामें अपना गुरु लिखा है । हरिभद्र के समय, संयतजीवन और उनके साहित्यिक कार्योंकी विशालताको देखते हुए उनकी श्रायुका अनुमान सौ वर्षके लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादीके समकालीन होनेके साथ-साथ कुक्लक्मालाकी रचनाके कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं। २ "तथा च श्राचार्यसिद्धसेन आह“का वाचं व्यमिन्धरवि न (ना) भिधानं तत् ॥” [वि० २७७] "अस्ति-भवति-विद्यति-वर्ततयः सन्निपातषष्ठाः सत्तार्था इत्यविशेषणोक्तालयात सिहासेमरामिणा । [वि. १६६ ढानिाशकाआक कता हा सारा mun ... Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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