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________________ किरण ११ ] सन्मति-सिद्धसेनाङ्क [४४५ इस तरह सिद्धसेनके समयकी पूर्व सीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण और उत्तरसीमा विक्रमकी सातवीं शताब्दीका तृतीय चरण (वि० सं० ५६२से ६६६) निश्चित होती है। इन प्रायः सौ वर्षके भीतर ही किसी समय सिद्धसेनका प्रन्थकाररूपमें अवतार हुआ और यह ग्रन्थ बना जान पड़ता है। (३) सिद्धसेनके समय-सम्बन्धमें पं० सुखलालजी संघवीकी जो स्थिति रही है. उसको ऊपर बतलाया जा चुका है। उन्होंने अपने पिछले लेखमें, जो 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नामसे 'भारतीयविद्या के तृतीय भाग (श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ)में प्रकाशित हुआ है, अपनी उस गुजराती प्रस्तावना-कालीन मान्यताको जो सन्मतिके अंग्रेजी संस्करणके अवसरपर फोरवर्ड (foreword)' लिखे जानेके पूर्व कुछ नये बौद्ध ग्रन्थोंके सामने आनेके कारण बदल गई थी और जिसकी फोरवर्डमें सूचना की गई है फिरसे निश्चितरूप दिया है अर्थात् विक्रमकी पाँचवी शताब्दीको ही सिद्धसेनका समय निर्धारित किया है और उसीको अधिक सङ्गत बतलाया है। अपनी इस मान्यताकके समर्थनमें उन्होंने जिन दा प्रमाणोंका उल्लेख किया है उनका सार इस प्रकार है, जिसे प्रायः उन्हींके शब्दोंके अनुवादरूपमें सङ्कलित किया गया है: (प्रथम) जिनभद्रक्षमाश्रमणने अपने महान् ग्रन्थ विशेषावश्यक भाष्यमें, जो विक्रम संवत् ६६६में बनकर समाप्त हुआ है, और लघुग्रन्थ विशेषणवतीमें सिद्धसेनदिवाकरके उपयोगाऽभेदवादकी तथैव दिवाकरकी कृति सन्मतितकके टीकाकार मल्लवादीके उपयोग-योगपद्यवादकी विस्तृत समालोचना की है । इससे तथा मल्लवादीके द्वादशारनयचक्रके उपलब्ध प्रतीकोंमें दिवाकरका सूचनं मिलने और जिनभद्रगणिका सूचन न मिलनेसे मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती और सिद्धसेन मल्लवादीसे भी पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। मल्लवादीको यदि विक्रमकी छठी शताब्दीक पूर्वाधमें मान लिया जाय तो सिद्धसेन दिवाकरका समय जो पाँचवी शताब्दी निर्धारित किया गया है वह अधिक सङ्गत लगता है। (द्वितीय) पूज्यपाद देवनन्दीने अपने जैनेन्द्रव्याकरणके वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस सूत्रमें सिद्धसेनके मतविशेषका उल्लेख किया है और वह यह है कि सिद्धसेनके मतानुसार 'विद्' धातुके 'र' का आगम होता है, चाहे वह धातु सकर्मक ही क्यों न हो। देवनन्दीका यह उल्लख बिल्कुल सच्चा है, क्योंकि दिवाकरकी जो कुछ थोड़ीसी संस्कृत कृतियाँ बची हैं उनमेंसे उनकी नवमी द्वात्रिंशिकाके २२वें पद्यमें 'विद्रतेः' ऐसा 'र' आगम वाला प्रयोग मिलता है। अन्य वैयाकरण जब 'सम्' उपसर्ग पूर्वक और अकर्मक 'विद्' धातुके र' आगम स्वीकार करते हैं तब सिद्धसेनने अनुपसर्ग और सकर्मक 'विद्' धातुका 'र' आगमवाला प्रयोग किया है । इसके सिवाय, देवनन्दी पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि नामकी तत्त्वार्थ-टीकाके सप्तम अध्यायगत १३वे सूत्रकी टीकामें सिद्धसेनदिवाकरके एक पद्यका अंश 'उक्त च' शब्दके साथ उद्धृत पाया जाता है और वह है 'वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते ।" यह पद्यांश उनकी तीसरी द्वात्रिंशिकाके १६वे पद्यका प्रथम चरण है। पूज्यपाद देवनन्दीका समय वर्तमान मान्यतानुसार विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध है अर्थात् पाँचवीं शताब्दीके अमुक भागसे छठी शताब्दीके अमुक भाग तक लम्बा है। इससे सिद्धसेनदिवाकरकी पाँचवीं शताब्दीमें होनेकी बात जो अधिक सङ्गत कही गई है उसका खुलासा हो जाता है । दिवाकरको देवनन्दीसे १ फोरवर्डके लेखकरूपमें यद्यपि नाम 'दलसुख मालवणिया'का दिया हुआ है परन्तु उसमें दी हुई उक्त - सूचनाको पण्डित सुखलालजीने उक्त लेखमें अपनी ही सूचना और अपना ही विचार-परिवर्तन स्वीकार किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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