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किरण ११ ]
सन्मति - सिद्धसेनाङ्क
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ग्रन्थकार विक्रमकी ७वीं शताब्दी के प्रायः उत्तरार्धके विद्वान् हैं। कलंकदेवका विक्रम सं० ७०० में बौद्धोंके साथ महान् वाद हुआ है जिसका उल्लेख पिछले एक फुटनोटमें अकलंकचरितके आधारपर किया जा चुका है, और जिनभद्रक्षमाश्रमणने अपना विशेषावश्यकभाष्य शक सं० ५३१ अर्थात् वि० सं० ६६६ में बनाकर समाप्त किया है। प्रन्थका यह रचनाकाल उन्होंने स्वयं ही ग्रन्थके अन्तमें दिया है, जिसका पता श्री जिनविजयजीको जैसलमेर भण्डारकी एक अतिप्राचीन प्रतिको देखते हुए चला है। ऐसी हालत में सन्मतिकार सिद्धसेन का समय विक्रम सं० ६६६से पूर्वका सुनिश्चित है परन्तु वह पूर्वका समय कौन-सा है? – कहाँ तक उसकी कमसे कम सीमा है ? - यही आगे विचारणीय है ।
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(२) सन्मतिसूत्रमें उपयोग-द्वयके क्रमवादका जोरोंके साथ खण्डन किया गया है, यह बात भी पहले बतलाई जा चुकी तथा मूल ग्रन्थ के कुछ वाक्योंको उद्धृत करके दर्शाई जाचुकी है। उस क्रमवादका पुरस्कर्ता कौन है और उसका समय क्या है ? यह बात यहाँ खास तौर से जान लेनेकी है । हरिभद्रसूरिने नन्दिवृत्ति में तथा अभयदेवसूरिने सन्मतिकी टीकामें यद्यपि जिनभद्रक्षमाश्रमणको क्रमवादके पुरस्कर्तारूप में उल्लेखित किया है परन्तु वह ठीक नहीं है; क्योंकि वे तो सन्मतिकारके उत्तरवर्ती हैं, जबकि होना चाहिये कोई पूर्ववर्ती । यह दूसरी बात है। कि उन्होंने क्रमवादका ज़ोरोंके साथ समर्थन और व्यवस्थित रूपसे स्थापन किया है, संभवतः इसीसे उनको उस वादका पुरस्कर्ता समझ लिया गया जान पड़ता है । अन्यथा, क्षमाश्रमणजी स्वयं अपने निम्न वाक्यों द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि उनसे पहले युगपद्वाद, क्रमवाद तथा भेदवाद पुरस्कर्ता हो चुके हैं :
"केई भांति जुगवं जाणइ पासइ य केवली यिमा ।
er एगंतरियं इच्छंति सुत्रोवरसेणं ॥ १८४ ॥ चैव वसु दंसणमिच्छति जिरणवरिंदस्स ।
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जं चि य केवलणाणं तं चि य से दरिसणं विति ॥ १८५ ॥ - विशेषणवती पं० सुखलालजी आदि ने भी कथन - विरोधको महसूस करते हुए प्रस्तावना में यह स्वीकार किया है. निभद्र और सिद्धसेनसे पहले क्रमवादके पुरस्कर्तारूपमें कोई विद्वान् होने ही चाहियें जिनके पक्षका सन्मति में खण्डन किया गया है; परन्तु उनका कोई नाम उपस्थित नहीं किया। जहाँ तक मुझे मालूम है वे विद्वान् नियुक्तिकार भद्रबाहु होने चाहियें, जिन्होंने आवश्यकनियुक्ति के निम्न वाक्य- द्वारा क्रमवादकी प्रतिष्ठा की है
खामि दसमि इत्तो एगयरयंमि उवजुत्ता ।
सव्वस्स केवलिस्सा (स्स वि) जुगवं दो पत्थि उवोगा ॥ ९७८ ॥
ये नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली न होकर द्वितीय भद्रबाहु हैं जो अष्टाङ्गनिमित्त तथा मन्त्र - विद्याके पारगामी होनेके कारण 'नैमित्तिक" कहे जाते हैं, जिनकी कृतियों में
१ पावयणी १ धम्मकही२ वाई३ ऐमित्ति तवस्सी५ य । विजा६ सिद्धो७ य कई अव पभावगा भणिया ॥ १ ॥ अजरक्ख१ नंदिसेणो२ सिरिगुत्तविणेय३ भद्दबाहू४ य । खवग५ऽज्जखवुड६ समिया७ दिवायरोद वा इहाऽऽहरणा ||२॥
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'छेदसूत्रकार ने नियुक्तिकार' लेखमें उद्धृत ।
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