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किरण ११ ]
सन्मति - सिद्धसेनाक
केवलणारणावरणक्खयजायं केवलं जहा गाणं । तह दंसणं पि जुज्जइ णियावरणक्खयस्सं ॥ ५ ॥ सुम्मि चेव 'साई पञ्जवसियं' ति केवलं वृत्त ं । सुत्तासायण भीरूहि तं च दट्ठव्वयं होइ ॥ ७ ॥ संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो णत्थि । केवलरणाम्मिय दंसणस्स तम्हा सहिणाई ॥ ८ ॥ दंसणरणारणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वारं । होज समं उप्पा हंदि दुवे णत्थि उवओोगा ॥ ९ ॥ णायं पासंतो ट्ठ च अरहा वियागंतो । किं जाइ किं पासइ कह सव्वष्णू त्ति वा होइ ॥ १३॥ अट्ठ े अविसr य अत्थम्मि दंसणं होइ । लिंग जं अरणगयाईय विससु ॥ २५ ॥
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भावे जाणइ पासइ य केवली णियमा । तुम्हा तं गाणं दसणं च अविसेस सिद्ध ||३०||
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इसीसे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन अभेदवाद के पुरस्कर्ता माने जाते हैं । टीकाकार अभयदेवसूरि और ज्ञानविन्दुके कर्ता उपाध्याय यशोविजयने भी ऐसा ही प्रतिपादन किया है । 'ज्ञानविन्दुमें तो एतद्विषयक सन्मति - गाथाओंकी व्याख्या करते हुए उनके इस वादको “श्रीसिद्धसेनोपज्ञनव्यमतं" (सिद्धसेनकी अपनी ही सूझ-बूझ अथवा उपजरूप नया मत) तक. लिखा है। ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावना के आदि में पं० सुखलालजीने भी ऐसी ही घोषणा की है ।
(२) पहली, दूसरी और पाँचवीं द्वात्रिंशिकाएँ युगपद्वादकी मान्यताको लिये हुए हैं; जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
क - "जगन्ने कावस्थं युगपदखिलाऽनन्तविषयं
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यदेतत्प्रत्यक्षं तव न च भवान् कस्यचिदपि । अनेनैवाऽचिन्त्य-प्रकृति-रस- सिद्ध ेस्तु विदुषां समीक्ष्यैतद्वारं तव गुण-कथो का वयमपि ॥१-३२॥”
- "नाऽर्थान् विवित्ससि न वेत्स्यसि नाऽप्यवेत्सीर्न ज्ञातवानसि न तेऽच्युत ! वेद्यमस्ति । त्रैकाल्य- नित्य-विषमं युगपच्च विश्व पश्यस्यचिन्त्य - चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥२- ३०॥”
ग - "अनन्तमेक' युगपत् त्रिकालं शब्दादिभिर्निप्रतिघातवृत्ति ॥५-२१॥" दुरापमाप्तं यदचिन्त्य-भूति - ज्ञानं त्वया जन्म- जराऽन्तकर्तृ तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ ! लोकोत्तमतामुपेतः ।।५-२२॥ ।”
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