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________________ ४२४ ] अनेकान्त [वर्ष ६ बतलाया गया है अमृतचन्द्रसूरिने भी जिसे 'गहन' और 'दुरासद' लिखा है'-उसपर जैन वाङ्मयमें कितने ही प्रकरण अथवा 'नयचक्र' जैसे स्वतन्त्र ग्रन्थ भी निर्मित हैं, उनका साथमें अध्ययन अथवा पूर्व-परिचय भी इस ग्रन्थके समुचित अध्ययनमें सहायक है। वास्तवमें यह ग्रन्थ सभी तत्त्वजिज्ञासुओं एवं आत्महितैषियोंके लिये उपयोगी है । अभी तक इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ है । वीरसेवामन्दिरका विचार उसे प्रस्तुत करनेका है। [क] ग्रन्थकार सिद्धसेन और उनकी दूसरी कृतियां इस 'सन्मति' ग्रन्थके कर्ता आचार्य सिद्धसेन हैं इसमें किसीको भी कोई विवाद नहीं है। अनेक ग्रन्थोंमें ग्रन्थनामके साथ सिद्धसेनका नाम उल्लेखित है और इस ग्रन्थके वाक्य भी सिद्धसेन-नामके साथ उद्धृत मिलते हैं; जैसे जयधवलामें आचार्य वीरसेनने 'णामठवणा दवियं' नामकी छठी गाथाको “उक्तं च सिद्धसेणेण" इस वाक्यके साथ उद्धृत किया है और पञ्चवस्तुमें आचार्य हरिभद्रने 'आयरियसिद्धसेणेण सम्मईए पइटिअजसेणं" वाक्यके द्वारा 'सन्मति'को सिद्धसेनकी कृतिरूपमें निर्दिष्ट किया है, साथ ही 'कालो सहाव णियई' नामकी एक गाथा भी उसकी उद्धृत की है। परन्तु ये सिद्धसेन कौन हैं-किस विशेष परिचयको लिये हुए हैं ? कौनसे सम्प्रदाय अथवा आनायसे सम्बन्ध रखते हैं ?, इनके गुरु कौन थे ? इनकी दूसरी कृतियाँ कौन-सी हैं ? और इनका समय क्या है ? ये सब बातें ऐसी हैं जो विवादका विषय जरूर हैं। क्योंकि जैनसमाजमें सिद्धसेन नामके अनेक आचार्य और प्रखर तार्किक विद्वान भी हो गये हैं और इस ग्रन्थमें ग्रन्थकारने अपना कोई परिचय दिया नहीं. न रचनाकाल ही दिया है-ग्रन्थकी आदिम गाथामें प्रयुक्त हुए 'सिद्धं' पदके द्वारा श्लेषरूपमें अपने नामका सूचनमात्र किया है, इतना ही समझा जा सकता है। कोई प्रशस्ति भी किसी दूसरे विद्वानके द्वारा निर्मित होकर ग्रन्थके अन्तमें लगी हुई नहीं है। दूसरे जिन ग्रन्थोंखासकर द्वात्रिंशिकाओं तथा न्यायावतार-को इन्हीं आचार्यको कृति समझा जाता और प्रतिपादन किया जाता है उनमें भी कोई परिचय-पद्य तथा प्रशस्ति नहीं है और न कोई ऐसा स्पष्ट प्रमाण अथवा युक्तिवाद ही सामने लाया गया है जिससे उन सब ग्रन्थोंको एक ही सिद्धसेन-कृत माना जा सके। और इसलिये अधिकांशमें कल्पनाओं तथा कुछ भ्रान्त धारणाओंके आधारपर ही विद्वान लोग उक्त बातोंके निर्णय तथा प्रतिपादनमें प्रवृत्त होते रहे हैं, इसीसे कोई भी ठीक निर्णय अभी तक नहीं हो पाया-वे विवादापन्न ही चली जाती हैं और सिद्धसेनके विषयमें जो भी परिचय-लेख लिखे गये हैं वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं और कितनी ही ग़लतफहमियोंको जन्म दे रहे तथा प्रचारमें ला रहे हैं। अतः इस विषयमें गहरे अनुसन्धानके साथ गम्भीर विचारकी ज़रूरत है और उसीका यहाँपर प्रयत्न किया जाता है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें सिद्धसेनके नामपर जो ग्रन्थ चढ़े हुए हैं उनमेंसे कितने ही ग्रन्थ तो ऐसे हैं जो निश्चितरूपमें दूसरे उत्तरवर्ती सिद्धसेनोंकी कृतियाँ हैं; जैसे १ जीतकल्पचूर्णि. २ तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी टीका ३ प्रवचनसारोद्धारकी वृत्ति, ४ एकविंशतिस्थानप्रकरण (प्रा०) और ५ सिद्धिश्र यसमुदय (शक्रस्तव) नामका मन्त्रगर्भित गद्यस्तोत्र । कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनका सिद्धसेन-नामके साथ उल्लेख तो मिलता है परन्तु आज वे उपलब्ध नहीं हैं, जैसे १ बृहत् षड्दशनसमुचय (जैनग्रन्थावली पृ० ६४),२ विषोग्रग्रहशमन१ देखो, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-"इति विविधभंग-गहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम्” । (५८) "अत्यन्तनिशितधार दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम्” । (५६) Jain Etecation international२ हो सकता है कि यह ग्रन्थ हरिभद्रसरिका पिङदर्शनसमुच्चय ही हो और किसी गलतीसे सूरतके उन www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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