SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ अनेकान्त [वर्ष ९ तथा उसके किसी विषय-विशेषका । वादिराजसे पूर्व- तौरपर प्रो० साहबके सामने यह बतलानेके लिये का जो साहित्य अभीतक अपनेको उपलब्ध है उसमें रक्खे गये कि 'रत्नकरण्ड सर्वार्थसिद्धिके कर्ता पूज्ययदि ग्रन्थका नाम 'रत्नकरण्ड' उपलब्ध नहीं होता पादसे भी पूर्वकी कृति है और इसलिये रत्नमालाके तो उससे क्या ? रत्नकरण्डका पद-वाक्यादिके रूपमें कर्ता शिवकोटिके गुरु उसके कर्ता नहीं हो सकते' तो साहित्य और उसका विषयविशेष तो उपलब्ध होरहा उन्होंने उत्तर देते हुए लिख दिया कि "सर्वार्थसिद्धिहै, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि 'रत्नकरण्डका कारने उन्हें रत्नकरण्डसे नहीं लिया, किन्तु सम्भव कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है' ? नहीं कहा जा सकता। है रत्नकरण्डकारने ही अपनी रचना सर्वार्थसिद्धिके श्रा० पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धिमें स्वामी समन्त- आधारसे की हो"। साथ ही रत्नकरण्डके उपान्त्यभद्रके ग्रन्थोंपरसे उनके द्वारा प्रतिपादित अर्थको कहीं पद्य 'येन स्वयं वीतकलङ्कविद्या को लेकर एक नई शब्दानुसरणके, कहीं पदानुसरणके, कहीं वाक्यानु- कल्पना भी कर डाली और उसके आधारपर यह सरणके, कहीं अर्थानुसरणके, कहीं भावानुसरणके, घोषित कर दिया कि 'रत्नकरण्डकी रचना न केवल कहीं उदाहरणके, कहीं पर्यायशब्दप्रयोगके और कहीं पूज्यपादसे पश्चात्कालीन है, किन्तु अकलङ्क और व्याख्यान-विवेचनादिके रूपमें पूर्णतः अथवा अंशतः विद्यानन्दसे भी पीछेकी है । और इसीको आगे अपनाया है-ग्रहण किया है और जिसका प्रदर्शन चलकर चौथी आपत्तिका रूप दे दिया । यहाँ भी प्रो० मैंने 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक साहबने इस बातको भुला दिया कि 'शिलालेखोंके. अपने लेखमें किया है। उसमें प्राप्तमीमांसा. स्वयं- उल्लेखानुसार कुन्दकुन्दाचार्यके उत्तरवर्ती जिन भूस्तोत्र और युक्त्यनुशासनके अलावा रत्नकरण्ड- समन्तभद्रको रत्नकरण्डका कर्ता बतला आए हैं श्रावकाचारके भी कितने ही पद-वाक्योंको तुलना उन्हें तो शिलालेखोंमें भी पूज्यपाद, अकलङ्क और करके रक्खा गया है जिन्हें सर्वार्थसिद्धिकारने अप- विद्यानन्दके पूर्ववर्ती लिखा है, तब उनके रत्ननाया है, और इस तरह जिनका सर्वार्थसिद्धिमें उल्लेख करण्डकी रचना अपने उत्तरवर्ती पूज्यपादादिके बाद पाया जाता है । अकलङ्कदेवके तत्त्वार्थराजवार्तिक की अथवा सर्वार्थसिद्धि के आधारपर की हुई कैसे हो और विद्यानन्दके श्लोकवार्तिकमें भी ऐसे उल्लेखोंकी सकती है ?' अन्तः इस विषयमें विशेष विचार चौथी कमी नहीं है। उदाहरणके तौरपर तत्त्वार्थसूत्र-गत आपत्तिके विचाराऽवसरपर ही किया जायगा। ७वें अध्यायके 'दिग्देशाऽनर्थदण्ड' नामक २१ वें यहाँपर मैं साहित्यिक उल्लेखका एक दूसरा स्पष्ट सूत्रसे सम्बन्ध रखने वाले "भोग-परिभोग-संख्यानं उदाहरण ऐसा उपस्थित कर देना चाहता हूँ जो पञ्चविधं त्रसघात-प्रमाद-बहवधाऽनिष्टाऽनुपसेव्य- ईसाकी ७वीं शताब्दीके ग्रन्थमें पाया जाता है और विषयभेदात्" इस उभय-वार्तिक-गत वाक्य और वह है रत्नकरण्डश्रावकाचारके निम्न पद्यका सिद्धइसकी व्याख्याओंको रत्नकरण्डके 'सहतिपरि सेन के न्यायावतारमें ज्योंका त्यों उद्धृत होनाहरणार्थ,' 'अल्पफलबहुविघातात्,' 'यदनिटं तद् आप्नोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्ट-विरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्रं कापथ-घदनम् ॥९॥ व्रतयेत्' इन तीन पद्यों (न०८४, ८५, ८६) के साथ यह पद्य रत्नकरण्डका एक बहुत ही आवश्यक तुलना करके देखना चाहिये, जो इस विषयमें अपनी अङ्ग है और उसमें यथास्थान-यथाक्रम मूलरूपसे खास विशेषता रखते हैं। पाया जाता है। यदि इस पद्यको उक्त ग्रन्थसे अलग __परन्तु मेरे उक्त लेखपरसे जब रत्नकरण्ड और कर दिया जाय तो उसके कथनका सिलसिला ही सर्वार्थसिद्धिके कुछ तुलनात्मक अश उदाहरणके बिगड जाय । क्योंकि ग्रन्थमें, जिन आप्त, आगम १ अनेकान्त वर्ष ५, किरण १०-११, पृ० ३४६ ३५२ (शास्त्र) और तपोभृत् (तपस्वी) के अष्ट अङ्गसंहित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527253
Book TitleAnekant 1948 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy