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किरण ३]
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रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
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और यदि प्रोफेसर साहब अपने उस पूर्व- को उपलब्ध नहीं है या किसीको भी उपलब्ध नहीं कथनको वापिस न लेकर पिछली तीन युक्तियोंको ही है अथवा वर्तमानमें कहीं उसका अस्तित्व ही नहीं वापिस लेते हैं तो फिर उनपर विचारकी जरूरत ही और पहले भी उसका अस्तित्व नहीं था ? यदि नहीं रहती–प्रथम मूल आपत्ति ही विचारके योग्य प्रो० साहबको वह उल्लेख उपलब्ध नहीं और किसी रह जाती है और उसपर ऊपर विचार किया ही दूसरेको उपलब्ध हो तो उसे अनुपलब्ध नहीं कहा जा चुका है।
जासकता-भले ही वह उसके द्वारा अभीतक प्रकाशयह भी होसकता है कि प्रोत्साहबके उक्त विलन में न लाया गया हो। और यदि किसीके द्वारा प्रकाश अध्यायके विरोधमें जो दो लेख (१ क्या नियुक्तिकार में न लाये जानेके कारण ही उसे दूसरोंके द्वारा भी भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ?, २ शिवभूति, अनुपलब्ध कहा जाय और वर्तमान साहित्यमें उसका शिवार्य और शिवकुमार) वीरसेवामन्दिरके विद्वानों अस्तित्व हो तो उसे सर्वथा अनुपलब्ध अथवा उस द्वारा लिखे जाकर अनेकान्तमें प्रकाशित हुए हैं। और उल्लेखका अभाव नहीं कहा जा सकता । और जिनमें विभिन्न आचार्योंके एकीकरणकी मान्यताका वर्तमान साहित्यमें उस उल्लेखके अस्तित्वका अभाव युक्तिपुरस्सरखण्डन किया गया है तथा जिनका अभीतक तभी कहा जा सकता है जब सारे साहित्यका भले कोई भी उत्तर साढ़े तीन वर्षका समय बीत जानेपर प्रकार अवलोकन करनेपर वह उसमें न पाया जाता हो। भी प्रो० साहबकी तरफसे प्रकाशमें नहीं आया, उन- सारे वर्तमान जैनसाहित्यका अवलोकन न तो प्रो० परसे प्रो० साहबका विलुप्त-अध्याय-सम्बन्धी अपना साहबने किया है और न किसी दूसरे विद्वानके अधिकांश विचार ही बदल गया हो और इसीसे वे द्वारा ही वह अभी तक हो पाया है । और जो भिन्न कथन-द्वारा शेष तीन आपत्तियोंको खड़ा करने- साहित्य लुप्त होचुका है उसमें वैसा कोई उल्लेख नहीं में प्रवृत्त हुए हों । परन्तु कुछ भी हो, ऐसी अनिश्चित था इसे तो कोई भी दृढताके साथ नहीं कह सकता। दशामें मुझे तो शेष तीनों आपत्तियोंपर भी अपना प्रत्युत इसके, वादिराजके सामने शक सं० ९४७ में विचार एव निर्णय प्रकट कर देना ही चाहिये । जब रत्नकरण्ड खूब प्रसिद्धिको प्राप्त था और उससे तदनुसार ही उसे आगे प्रकट किया जाता है। कोई ३० या ३५ वर्ष बाद ही प्रभाचन्द्राचार्यने उसपर
(२) रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका भिन्न- संस्कृत टीका लिखी है और उसमें उसे साफ तौरपर कतृत्व सिद्ध करनेके लिये प्रो० साहबकी स्वामी समन्तभद्रकी कृति घोषित किया है, तब जो दूसरी दलील (युक्ति) है वह यह है कि "रत्न- उसका पूर्व साहित्यमें उल्लेख होना बहुत कुछ स्वाकरण्डका कोई उल्लेख शक संवत् ९४७ (वादिराजके भाविक जान पड़ता है । वादिराजके सामने कितना पार्श्वनाथचरितके रचनाकाल) से पूर्वका उपलब्ध ही जैनसाहित्य ऐसी उपस्थित था जो आज हमारे नहीं है तथा उसका आप्तमीमांसाके साथ एककतृत्व सामने उपस्थित नहीं है और जिसका उल्लेख उनके बतलाने वाला कोई भी सुप्राचीन उल्लेख नहीं पाया ग्रंथोंमें मिलता है। ऐसी हालतमें पूर्ववर्ती उल्लेखका जाता।" यह दलील वास्तवमें कोई दलील नहीं है; उपलब्ध न होना कोई खास महत्व नहीं रखता और क्योंकि उल्लेखाऽनुपलब्धिका भिन्नकर्तृत्वके साथ न उसके उपलब्ध न होने मात्रसे रत्नकरण्डकी रचनाकोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है-उल्लेखके न को वादिराजके सम-सामयिक ही कहा जा सकता है, मिलनेपर भी दोनोंका एक कर्ता होनेमें स्वरूपसे कोई जिसके कारण प्राप्तमीमांसा और रत्नकरण्डके भिन्न बाधा प्रतीत नहीं होती। इसके सिवाय यह प्रश्न पैदा कतृत्वकी कल्पनाको बल मिलता। होता है कि रत्नकरण्डका वह पूर्ववर्ती उल्लेख प्रो. सा. दसरी बात यह है कि उल्लेख दो प्रकारका होता १ अनेकान्त वर्ष ६, कि० १०-११ और वर्ष ७, कि० १-२ है-एक ग्रन्थनामका और दूसरा ग्रन्थके साहित्य
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