SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ] अनेक श्लोकोंमें द्वरावती नगरीका वर्णन किया है । स्थानाभाव के कारण खास खास श्लोकों का ही परिचय दिया जा सका है। इसके आगे राजा समुद्रविजयका वर्णन देखियेयदर्धचन्द्रापचितोत्तमाङ्ग रुद्दण्डदोस्ताण्डवमादधानैः । विद्वेषिभित्तशिवाप्रमोदः, कैः कैर्न दध युधि रुद्रभावः ॥ ६१ 'राजा समुद्रदत्त के वाणोंसे जिनका मस्तक कट गया है, जो बचाव के लिये अपनी उद्दण्ड भुजाओं को फड़फड़ा रहे हैं तथा भक्ष्य सामग्री प्राप्त होने पर जिन्हों ने शिवा-शृगालियोंके लिये हर्ष प्रदान किया है— ऐसे कौन कौन शत्रुओंने युद्ध में रुद्रभाव - क्रूरभावको धारण नहीं किया था ? अर्थात् सभीने किया था।' 'जिनके मस्तक अर्धचन्द्रसे पूजित हैं, जो अपनी भुजाओंसे उद्दण्ड ताण्डव नृत्य करते हैं, तथा जिन्हों न पति होने के कारण शिवा - पार्वतीको हर्ष प्रदान किया है - ऐसे कौन कौन शत्रुओंने युद्ध में रुद्रभाव - महादेवपनेका धारण नहीं किया था ? अर्थात् सभी ने किया था।' काव्य- परिचय ४६६ होता था, तथा हमेशा शान्ति हवन आदि होते रहने के कारण समय समय पर जलवर्षा होती रहती थी, यह अर्थ लेने पर कोई विरोध शेष नहीं रह जाता । यहां वर्णनीय वस्तुमात्र इतनी है कि 'राजा समुद्रविजय के राज्य में दुष्टों का निग्रह होता था और वर्षा भी समयपर हुआ करती थी ।' परन्तु कविने विरोधालंकारकी पुट देकर उसे कितना सुन्दर बना दिया है ! यहाँ क्रमसे लिखे हुए प्रकृत और अप्रकृत अर्थों का कितना सुन्दर श्लेष है और उससे प्रकट होने वाला ‘रुद्रभावः रुद्रभाव इव' यह उपमालंकार कविके जिस काव्यकौशलको प्रकट कर रहा है वह प्रशंसनीय है । द्वे कौतुके न्यातपच्छायातलस्थायिनि भूतलेऽस्मिन् । संतापमापद्यदसाधुवर्गों, यद्वृष्टिरप्यस्खलिता बभूव ॥ ६३॥ 'महाराज समुद्र विजयकी छत्रछाया के नीचे रहने भूमि पर दो आश्चर्यजनक कौतुक हुए थे । पहला यह कि दुष्टमानव-समूहने सन्तापको पाया था और दूसरा यह कि वर्षा भी अप्रतिहत- बेरोक टोक रूपसे हुई थी ।' जो मनुष्य छायाके नीचे स्थित होता है खसे धूप तथा जलवृष्टिकी वाधा नहीं होतीपरन्तु यहां महाकवि ने, समुद्र विजयकी छत्र छायाके नीचे स्थित उन दोनों बाधाओं को बतलाया है जिससे विरोधालंकार अत्यन्त स्पष्ट होगया है । किन्तु उनकी शासन व्यवस्था में दुष्ट मनुष्यों का निग्रह होता था इसलिये दुष्टोंको दुःख 1 महाराज समुद्रविजयने शत्रु-राजाओं को अबलनिर्बल बना दिया था, इसका वर्णन देखिये"हाला पदूरीकृत - कोपलज्जाः सन्नाभिमानास्तनवप्रभावाः । मन्त्रप्रयोगादबलाः सहेलं येनाक्रियन्त प्रतिपक्षभूपाः ॥ ६४ ॥ 'हा, हा, इस प्रकार दुःखसूचक शब्दोंद्वारा जिन का कोप और लज्जा दूर होगई है, जिनका अभिमान नष्ट हो गया है, और नवीन प्रभाव अस्त होगया है ऐसे शत्रुराजाओं को राजा समुद्रविजयने अपने मन्त्रवल—सद्विचारणा के बलसे निर्बल बना दिया था।' [ राजाने उन्हें निर्बल बना दिया था इसलिये उनकी ऊपर लिखी हुई अवस्था हो गई थी ।] 'हाला मदिरा के द्वारा जिनका कोप और लज्जा दोनों दूर होगई हैं तथा सुन्दर नाभिके मानसे जिन्होंने नव तरुण पुरुषोंके प्रभावको — धैर्यको - नष्ट कर दिया है ऐसे शत्रुओंको राजा समुद्रविजयने अपने मन्त्र तन्त्र के प्रयोगसे अबला - स्त्री बना दिया थायह आश्चर्य की बात है ! यहाँ श्लेष तथा उससे उत्पन्न हुए विरोधाभास अलंकारकी सुन्दरता कविके अनोखे काव्य-कौशलको प्रकट कर रही हैं। (क्रमश:) १ 'हा' इत्यालापेन दूरीकृते कोपलज्जे यैस्ते, हालया मद्येनापदूरीकृते कोपलज्जे याभिस्ताः । सन्नोऽभिमानो येषां ते, अतएवास्तो नवः प्रभावो येषां ते, सुन्दरनाभेर्मानेन स्तो नवानां यूनां प्रभावो धैर्य रूपो याभिस्ताः । यद्वा सन्नोऽभिमान या समन्तात्स्तनोच्चत्वं यासां ताः । यद्वा सुन्दरो नाभिमानो यासां ताः स्तनयोर्वप्रभाव उच्चता यासु ताः ।
SR No.527177
Book TitleAnekant 1941 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy